शाह नसीर के शेर
सय्याद के जिगर में करे था सिनाँ का काम
मुर्ग़-ए-क़फ़स के सर पे ये एहसान-ए-नाला था
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ये निगल जाएगी इक दिन तिरी चौड़ाई चर्ख़
गर कभू तुझ से ज़मीं हम ने भी नपवाई चर्ख़
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दे मुझ को भी इस दौर में साक़ी सिपर-ए-जाम
हर मौज-ए-हवा खींचे है शमशीर हवा पर
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इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट
तेरी गिरह में क्या दिल-ए-अंदोह-गीं रहा
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आता है तो आ वादा-फ़रामोश वगर्ना
हर रोज़ का ये लैत-ओ-ल'अल जाए तो अच्छा
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रुवाक़-ए-चशम में मत रह कि है मकान-ए-नुज़ूल
तिरे तो वास्ते ये क़स्र है बना दिल का
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कम नहीं है अफ़सर-शाही से कुछ ताज-ए-गदा
गर नहीं बावर तुझे मुनइम तो दोनों तोल ताज
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इक पल में झड़ी अब्र-ए-तुनक-माया की शेख़ी
देखा जो मिरा दीदा-ए-पुर-आब न ठहरा
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मैं उस की चश्म का बीमार-ए-ना-तवाँ हूँ तबीब
जो मेरे हक़ में मुनासिब हो वो दवा ठहरा
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मेरे नाले के न क्यूँ हो चर्ख़-ए-अख़्ज़र ज़ेर-ए-पा
ख़ुत्बा ख़्वान-ए-इश्क़ है रखता है मिम्बर ज़ेर-ए-पा
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शौक़-ए-कुश्तन है उसे ज़ौक़-ए-शहादत है मुझे
याँ से मैं जाऊँगा वाँ से वो सितमगर आएगा
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ले गया दे एक बोसा अक़्ल ओ दीन ओ दिल वो शोख़
क्या हिसाब अब कीजे कुछ अपना ही फ़ाज़िल रह गया
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तेरे ख़याल-ए-नाफ़ से चक्कर में किया है दिल
गिर्दाब से निकल के शनावर नहीं फिरा
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तिश्नगी ख़ाक बुझे अश्क की तुग़्यानी से
ऐन बरसात में बिगड़े है मज़ा पानी का
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चमन में देखते ही पड़ गई कुछ ओस ग़ुंचों पर
तिरे बुस्ताँ पे आलम है अजब शबनम के महरम का
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शैख़-साहिब की नमाज़-ए-सहरी को है सलाम
हुस्न-ए-निय्यत से मुसल्ले पे वज़ू टूट गया
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बसान-ए-आइना हम ने तो चश्म वा कर ली
जिधर निगाह की साफ़ उस को बरमला देखा
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रेख़्ता के क़स्र की बुनियाद उठाई ऐ 'नसीर'
काम है मुल्क-ए-सुख़न में साहिब-ए-मक़्दूर का
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टैग : रेख़्ता
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हो गुफ़्तुगू हमारी और अब उस की क्यूँकि आह
उस के दहाँ नहीं तो हमारी ज़बाँ नहीं
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आँखों से तुझ को याद मैं करता हूँ रोज़-ओ-शब
बे-दीद मुझ से किस लिए बेगाना हो गया
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क्या दिखाता है फ़लक-ए-गर्म तू नान-ए-ख़ुर्शीद
खाना खाते हैं सदा अहल-ए-तवक्कुल ठंडा
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मुश्किल है रोक आह-ए-दिल-ए-दाग़दार की
कहते हैं सौ सुनार की और इक लुहार की
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सब पे रौशन है कि राह-ए-इश्क़ में मानिंद-ए-शम्अ
पाँव पर से हम ने क़ुर्बां रफ़्ता रफ़्ता सर किया
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मत पूछ वारदात-ए-शब-ए-हिज्र ऐ 'नसीर'
मैं क्या कहूँ जो कार-ए-नुमायान-ए-नाला था
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सौ बार बोसा-ए-लब-ए-शीरीं वो दे तो लूँ
खाने से दिल मिरा अभी शक्कर नहीं फिरा
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की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
चार उंसुर से खुले मअनी-ए-पिन्हाँ हम को
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ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था
ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ ही हर दम हमें तो लैल-ओ-नहार आया
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शराब लाओ कबाब लाओ हमारे दिल को न अब घटाओ
शुरूअ दूद-ए-क़दह हो जल्दी कि सर पे अब्र-ए-बहार आया
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बोसा-ए-ख़ाल-ए-लब-ए-जानाँ की कैफ़िय्यत न पूछ
नश्शा-ए-मय से ज़ियादा नश्शा-ए-अफ़्यूँ हुआ
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बना कर मन को मनका और रग-ए-तन के तईं रिश्ता
उठा कर संग से फिर हम ने चकनाचूर की तस्बीह
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न हाथ रख मिरे सीने पे दिल नहीं इस में
रखा है आतिश-ए-सोज़ाँ को दाब के घर में
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काबे से ग़रज़ उस को न बुत-ख़ाने से मतलब
आशिक़ जो तिरा है न इधर का न उधर का
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टैग : हज़ार दास्तान-ए-इश्क़
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तिरे ही नाम की सिमरण है मुझ को और तस्बीह
तू ही है विर्द हर इक सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
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पूछने वालों को क्या कहिए कि धोके में नहीं
कुफ़्र ओ इस्लाम हक़ीक़त में हैं यकसाँ हम को
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सुपर रखता हूँ मैं भी आफ़्ताबी साग़र-ए-मय की
मुझे ऐ अब्र तेग़-ए-बर्क़ को चमका के मत धमका
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दिन रात यहाँ पुतलियों का नाच रहे है
हैरत है कि तू महव-ए-तमाशा नहीं होता
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मता-ए-दिल बहुत अर्ज़ां है क्यूँ नहीं लेते
कि एक बोसे पे सौदा है अब तो आ ठहरा
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तार-ए-नफ़स उलझ गया मेरे गुलू में आ के जब
नाख़ुन-ए-तेग़-ए-यार को मैं ने गिरह-कुशा किया
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सर-बुलंदी को यहाँ दिल ने न चाहा मुनइम
वर्ना ये ख़ेमा-ए-अफ़्लाक पुराना क्या था
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ख़याल-ए-नाफ़-ए-बुताँ से हो क्यूँ कि दिल जाँ-बर
निकलते कोई भँवर से न डूबता देखा
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सरज़मीन-ए-ज़ुल्फ़ में क्या दिल ठिकाने लग गया
इक मुसाफ़िर था सर-ए-मंज़िल ठिकाने लग गया
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तार-ए-मिज़्गाँ पे रवाँ यूँ है मिरा तिफ़्ल-ए-सरिश्क
नट रसन पर चले है जैसे कोई रख कर पाँव
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तू तो इक परचा भी वाँ से नामा-बर लाया न आह
ज़िंदगी क्यूँकर हो गर हम दिल को पर जावें नहीं
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की है उस्ताद-ए-अज़ल ने ये रुबाई मौज़ूँ
चार उंसुर के सिवा और है इंसान में क्या
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इसी मज़मून से मालूम उस की सर्द-मेहरी है
मुझे नामा जो उस ने काग़ज़-ए-कश्मीर पर लिक्खा
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मुल्ला की दौड़ जैसे है मस्जिद तलक 'नसीर'
है मस्त की भी ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार तक पहुँच
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ख़ुदा गवाह है मैं शग़्ल-ए-बुत-परस्ती में
सिवाए इश्क़ किसी काम से नहीं वाक़िफ़
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इश्क़ ही दोनों तरफ़ जल्वा-ए-दिलदार हुआ
वर्ना इस हीर का राँझे को रिझाना क्या था
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आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
उस का भी हम ने सिलसिला अज़-सर-ए-नौ बपा किया
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देख तू यार-ए-बादा-कश मैं ने भी काम क्या किया
दे के कबाब-ए-दिल तुझे हक़्क़-ए-नमक अदा किया
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