सय्यद अमीन अशरफ़ के शेर
है ता-हद्द-ए-इम्काँ कोई बस्ती न बयाबाँ
आँखों में कोई ख़्वाब दिखाई नहीं देता
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इक चाँद है आवारा-ओ-बेताब ओ फ़लक-ताब
इक चाँद है आसूदगी-ए-हिज्र का मारा
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लज़्ज़त-ए-दीद ख़ुदा जाने कहाँ ले जाए
आँख होती है तो होता नहीं क़ाबू दिल पर
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किसी से इश्क़ हो जाने को अफ़्साना नहीं कहते
कि अफ़्साने मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार होते हैं
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हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से नहीं जाने वाला
दर्द इस दीदा-ए-तर से नहीं जाने वाला
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जिसे ना-ख़्वाब कहते हैं उसी को ख़्वाब कहते हैं
तमीज़-ए-ख़ैर-ओ-शर में नुकता-ए-सद-मोतबर क्या है
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इक ख़ला है जो पुर नहीं होता
जब कोई दरमियाँ से उठता है
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मैं पर-शिकस्ता न था बादलों के बीच मगर
मिरी उड़ान का ज़ंजीर से लिपट जाना
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है इर्तिबात-शिकन दाएरों में बट जाना
चमन का मौजा-ए-बाद-ए-सबा से कट जाना
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मैं देखता हूँ फ़राज़-ए-जुनूँ से दुनिया को
कि सहल भी नहीं शायान-ए-आरज़ू होना
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कहीं पे दस्त-ए-निगारीं कहीं लब-ए-ल'अलीं
वो सोते सोते मिरी नींद का उचट जाना
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इस तरह चश्म-ए-नीम-वा ग़ाफ़िल भी थी बेदार भी
जैसे नशा हो रात का या सुब्ह का तड़का हुआ
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कहीं भी ताइर-ए-आवारा हो मगर तय है
जिधर कमाँ है उधर जाएगा कभी न कभी
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हवा का तब्सिरा ये साकिनान-ए-शहर पे था
अजीब लोग हैं पानी पे घर बनाते हैं
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अजब नहीं कि हो दीवार नुक़्ता-ए-मौहूम
मकान हो कि मकीं दो दिलों का मिलना देख
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