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ज़हीर देहलवी

1825 - 1911 | दिल्ली, भारत

ज़हीर देहलवी के शेर

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शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की

तौबा के साथ तोड़िए बोतल शराब की

समझेंगे अग़्यार को अग़्यार कहाँ तक

कब तक वो मोहब्बत को मोहब्बत कहेंगे

चाहत का जब मज़ा है कि वो भी हों बे-क़रार

दोनों तरफ़ हो आग बराबर लगी हुई

इश्क़ है इश्क़ तो इक रोज़ तमाशा होगा

आप जिस मुँह को छुपाते हैं दिखाना होगा

ख़ैर से रहता है रौशन नाम-ए-नेक

हश्र तक जलता है नेकी का चराग़

सर पे एहसान रहा बे-सर-ओ-सामानी का

ख़ार-ए-सहरा से उलझा कभी दामन अपना

कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार

और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं

कभी बोलना वो ख़फ़ा ख़फ़ा कभी बैठना वो जुदा जुदा

वो ज़माना नाज़ नियाज़ का तुम्हें याद हो कि याद हो

दर्द और दर्द भी जुदाई का

ऐसे बीमार की दुआ कब तक

किस का है जिगर जिस पे ये बेदाद करोगे

लो दिल तुम्हें हम देते हैं क्या याद करोगे

चौंक पड़ता हूँ ख़ुशी से जो वो जाते हैं

ख़्वाब में ख़्वाब की ताबीर बिगड़ जाती है

कोई पूछे तो सही हम से हमारी रूदाद

हम तो ख़ुद शौक़ में अफ़्साना बने बैठे हैं

हम और चाह ग़ैर की अल्लाह से डरो

मिलते हैं तुम से भी तो तुम्हारी ख़ुशी से हम

तल्ख़ शिकवे लब-ए-शीरीं से मज़ा देते हैं

घोल कर शहद में वो ज़हर पिला देते हैं

इंसान वो क्या जिस को हो पास ज़बाँ का

ये कोई तरीक़ा है कहा और किया और

हुस्न की गर्मी-ए-बाज़ार इलाही तौबा

आग सी आग बरसती है ख़रीदारों पर

गुदगुदाया जो उन्हें नाम किसी का ले कर

मुस्कुराने लगे वो मुँह पे दुपट्टा ले कर

तुम ने पहलू में मिरे बैठ के आफ़त ढाई

और उठे भी तो इक हश्र उठा कर उट्ठे

ब'अद मरने के भी मिट्टी मिरी बर्बाद रही

मिरी तक़दीर के नुक़सान कहाँ जाते हैं

बज़्म-ए-दुश्मन में जा के देख लिया

ले तुझे आज़मा के देख लिया

सब कुछ मिला हमें जो तिरे नक़्श-ए-पा मिले

हादी मिले दलील मिले रहनुमा मिले

यहाँ देखूँ वहाँ देखूँ इसे देखूँ उसे देखूँ

तुम्हारी ख़ुद-नुमाई ने मुझे डाला है हैरत में

पान बन बन के मिरी जान कहाँ जाते हैं

ये मिरे क़त्ल के सामान कहाँ जाते हैं

है दिल में अगर उस से मोहब्बत का इरादा

ले लीजिए दुश्मन के लिए हम से वफ़ा क़र्ज़

शैख़ अपने अपने अक़ीदे का फ़र्क़ है

हुरमत जो दैर की है वही ख़ानक़ाह की

मुँह छुपाना पड़े दुश्मन से

शब-ए-ग़म सहर हो जाए

इश्क़ क्या शय है हुस्न है क्या चीज़

कुछ इधर की है कुछ उधर की आग

आख़िर मिले हैं हाथ किसी काम के लिए

फाड़े अगर जेब तो फिर क्या करे कोई

है लुत्फ़ तग़ाफ़ुल में या जी के जलाने में

वादा तो किया होता गो वो वफ़ा होता

क़हर है ज़हर है अग़्यार को लाना शब-ए-वस्ल

ऐसे आने से तो बेहतर है आना शब-ए-वस्ल

आज तक कोई अरमान हमारा निकला

क्या करे कोई तुम्हारा रुख़-ए-ज़ेबा ले कर

किस की आशुफ़्ता-मिज़ाजी का ख़याल आया है

आप हैरान परेशान कहाँ जाते हैं

आज आए थे घड़ी भर को 'ज़हीर'-ए-नाकाम

आप भी रोए हमें साथ रुला कर उठ्ठे

बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही

मिरे घर शाम होनी है सहर से

वो जितने दूर खिंचते हैं तअल्लुक़ और बढ़ता है

नज़र से वो जो पिन्हाँ हैं तो दिल में हैं अयाँ क्या-क्या

है सैर निगाहों में शबिस्तान अदू की

क्या मुझ से छुपाते हो तमाशा मिरे दिल का

'ज़हीर'-ए-ख़स्ता-जाँ सच है मोहब्बत कुछ बुरी शय है

मजाज़ी में हक़ीक़ी के हुए हैं इम्तिहाँ क्या क्या

दिल को दार-उस-सुरूर कहते हैं

जल्वा-गाह-ए-हुज़ूर कहते हैं

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