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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

1911 - 1984 | लाहौर, पाकिस्तान

सबसे प्रख्यात एवं प्रसिद्ध शायर। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण कई साल कारावास में रहे

सबसे प्रख्यात एवं प्रसिद्ध शायर। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण कई साल कारावास में रहे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शेर

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मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे

दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए

''आप की याद आती रही रात भर''

चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के

वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

जानता है कि वो आएँगे

फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल

जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई

सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया

वो रहे हैं वो आते हैं रहे होंगे

शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने

बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते

तुम अच्छे मसीहा हो शिफ़ा क्यूँ नहीं देते

और क्या देखने को बाक़ी है

आप से दिल लगा के देख लिया

कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे

मेरी ख़ामोशियों में लर्ज़ां है

मेरे नालों की गुम-शुदा आवाज़

फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं

फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम

'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल

हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए

जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए

वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

सारी दुनिया से दूर हो जाए

जो ज़रा तेरे पास हो बैठे

जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी

जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई

गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़ारा का असर तो देखो

गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-तर तो देखो

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था

वर्ना हमें जो दुख थे बहुत ला-दवा थे

मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है

कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने

कब ठहरेगा दर्द दिल कब रात बसर होगी

सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी

जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी

बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अपनी नज़रें बिखेर दे साक़ी

मय ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं

जवाँ-मर्दी उसी रिफ़अत पे पहुँची

जहाँ से बुज़दिली ने जस्त की थी

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं

दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम

कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई

ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू

सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं

हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं

फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती

हम अपने दिल की धड़कन को तिरी आवाज़-ए-पा समझे

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था

वर्ना हमें जो दुख थे बहुत ला-दवा थे

हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से

बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाइयाँ क्या क्या

हम से कहते हैं चमन वाले ग़रीबान-ए-चमन

तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम

शाम-ए-फ़िराक़ अब पूछ आई और के टल गई

दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई

मिरी जान आज का ग़म कर कि जाने कातिब-ए-वक़्त ने

किसी अपने कल में भी भूल कर कहीं लिख रखी हों मसर्रतें

इन में लहू जला हो हमारा कि जान दिल

महफ़िल में कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं

वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ लब की बख़िया-गरी

फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं

नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से

हम उन से रिश्ता-ए-दिल उस्तुवार करते रहे

तुम आए हो शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है

तलाश में है सहर बार बार गुज़री है

व्याख्या

इस शे’र को प्रायः टीकाकारों और आलोचकों ने प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से देखा है। उनकी नज़र में “तुम”, “इन्क़िलाब”, “शब-ए-इंतज़ार” द्विधा, शोषण और अन्वेषण का प्रतीक है। इस दृष्टि से शे’र का विषय ये बनता है कि क्रांति करने का प्रयत्न करने वालों ने शोषक तत्वों के विरुद्ध हालांकि बहुत कोशिशें की मगर हर दौर अपने साथ नए शोषक तत्व लाता है। चूँकि फ़ैज़ ने अपनी शायरी में उर्दू शायरी की परंपरा से बग़ावत नहीं की और पारंपरिक विधानों को ही बरता है इसलिए इस शे’र को अगर प्रगतिशील सोच के दायरे से निकाल कर भी देखा जाये तो इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि तुम आए और इंतज़ार की रात गुज़री। हालांकि नियम ये है कि हर रात की सुबह होती है मगर सुबह के बार-बार आने के बावजूद इंतज़ार की रात ख़त्म नहीं होती।

शफ़क़ सुपुरी

शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह की

शुक्र है ज़िंदगी तबाह की

हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन

यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है

तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले

अपने कुछ और भी सहारे थे

हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं

तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं

हम सहल-तलब कौन से फ़रहाद थे लेकिन

अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है

हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे

जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे

मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से

बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती

जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ

इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं

हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ

दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह

ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले मिले

शैख़-साहब से जाँ तो छुटेगी

चंग नय रंग पे थे अपने लहू के दम से

दिल ने लय बदली तो मद्धम हुआ हर साज़ का रंग

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