अब्दुल अहद साज़ के शेर
हर क़दम इस मुतबादिल से भरी दुनिया में
रास आए तो बस इक तेरी कमी आए हमें
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शेर अच्छे भी कहो सच भी कहो कम भी कहो
दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो
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नेक गुज़रे मिरी शब सिद्क़-ए-बदन से तेरे
ग़म नहीं राब्ता-ए-सुब्ह जो काज़िब ठहरे
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रात है लोग घर में बैठे हैं
दफ़्तर-आलूदा ओ दुकान-ज़दा
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घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें
मैं ने अपना घर अपने मस्कन से अलग कर रक्खा है
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पस-मंज़र में 'फ़ीड' हुए जाते हैं इंसानी किरदार
फ़ोकस में रफ़्ता रफ़्ता शैतान उभरता आता है
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बोल थे दिवानों के जिन से होश वालों ने
सोच के धुँदलकों में अपना रास्ता पाया
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ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे
ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है
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मैं तिरे हुस्न को रानाई-ए-मा'नी दे दूँ
तू किसी शब मिरे अंदाज़-ए-बयाँ में आना
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मुफ़्लिसी भूक को शहवत से मिला देती है
गंदुमी लम्स में है ज़ाइक़ा-ए-नान-ए-जवीं
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टैग : मुफ़्लिसी
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मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे
फिर उस को लफ़्ज़ तक आते हुए ज़माने लगे
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बुरा हो आईने तिरा मैं कौन हूँ न खुल सका
मुझी को पेश कर दिया गया मिरी मिसाल में
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शोलों से बे-कार डराते हो हम को
गुज़रे हैं हम सर्द जहन्नम-ज़ारों से
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बयाज़ पर सँभल सके न तजरबे
फिसल पड़े बयान बन के रह गए
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जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया
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शिकस्त-ए-व'अदा की महफ़िल अजीब थी तेरी
मिरा न होना था बरपा तिरे न आने में
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दाद-ओ-तहसीन की बोली नहीं तफ़्हीम का नक़्द
शर्त कुछ तो मिरे बिकने की मुनासिब ठहरे
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'साज़' जब खुला हम पर शेर कोई 'ग़ालिब' का
हम ने गोया बातिन का इक सुराग़ सा पाया
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टैग : मिर्ज़ा ग़ालिब
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जिन को ख़ुद जा के छोड़ आए क़ब्रों में हम
उन से रस्ते में मुढभेड़ होती रही
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नज़र तो आते हैं कमरों में चलते-फिरते मगर
ये घर के लोग न जाने कहाँ गए हुए हैं
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ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा
अज़ीज़-ए-मन ''ब-सलामत-रवी ओ बाज़-आई''
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मिरी रफ़ीक़-ए-नफ़्स मौत तेरी उम्र दराज़
कि ज़िंदगी की तमन्ना है दिल में अफ़्ज़ूँ फिर
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ख़याल क्या है जो अल्फ़ाज़ तक न पहुँचे 'साज़'
जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है
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शायरी तलब अपनी शायरी अता उस की
हौसले से कम माँगा ज़र्फ़ से सिवा पाया
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मुशाबहत के ये धोके मुमासलत के फ़रेब
मिरा तज़ाद लिए मुझ सा हू-ब-हू क्या है
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ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी
ठिकाने आए मिरे होश या ठिकाने लगे
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टैग : बेख़बरी
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यादों के नक़्श घुल गए तेज़ाब-ए-वक़्त में
चेहरों के नाम दिल की ख़लाओं में खो गए
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तुम अपने ठोर-ठिकानों को याद रक्खो 'साज़'
हमारा क्या है कि हम तो कहीं भी रहते हैं
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नज़र की मौत इक ताज़ा अलमिया
और इतने में नज़ारा मर रहा है
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मैं बढ़ते बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
कि गिन के रख दिए तू ने मिरी मजाल के दिन
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अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है
ये चाक-ए-दिल है उसे हाजत-ए-रफ़ू क्या है
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प्यास बुझ जाए ज़मीं सब्ज़ हो मंज़र धुल जाए
काम क्या क्या न इन आँखों की तिरी आए हमें
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बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में
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बचपन में हम ही थे या था और कोई
वहशत सी होने लगती है यादों से
बे-मसरफ़ बे-हासिल दुख
जीने के ना-क़ाबिल दुख
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वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
क्या ग़ज़ब है कोई उस शोख़ के जैसा भी नहीं
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ज़मानों को मिला है सोज़-ए-इज़हार
वो साअत जब ख़मोशी बोल उठी है
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मिरे मह ओ साल की कहानी की दूसरी क़िस्त इस तरह है
जुनूँ ने रुस्वाइयाँ लिखी थीं ख़िरद ने तन्हाइयाँ लिखी हैं
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आई हवा न रास जो सायों के शहर की
हम ज़ात की क़दीम गुफाओं में खो गए
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दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
दिल जो घबराए समुंदर के किनारे जाना
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जैसे कोई दायरा तकमील पर है
इन दिनों मुझ पर गुज़िश्ता का असर है
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नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक
मुझ को अपना घर बहुत याद आ रहा है
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ला से ला का सफ़र था तो फिर किस लिए
हर ख़म-ए-राह से जाँ उलझती रही
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अब आ के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से
मिसरों की शोख़ हसीनाएँ सौ बार जो रूठती मनती थीं
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