फ़ैसल अजमी के शेर
मैं ज़ख़्म खा के गिरा था कि थाम उस ने लिया
मुआफ़ कर के मुझे इंतिक़ाम उस ने लिया
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आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
लेकिन ख़बर नहीं कि बुलाया कहाँ गया
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अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
मैं न कहता था बहुत दूर न जाना मिरे दोस्त
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कभी देखा ही नहीं उस ने परेशाँ मुझ को
मैं कि रहता हूँ सदा अपनी निगहबानी में
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हर्फ़ अपने ही मआनी की तरह होता है
प्यास का ज़ाइक़ा पानी की तरह होता है
उस को जाने दे अगर जाता है
ज़हर कम हो तो उतर जाता है
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चंद ख़ुशियों को बहम करने में
आदमी कितना बिखर जाता है
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टूटता है तो टूट जाने दो
आइने से निकल रहा हूँ मैं
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मैं सो गया तो कोई नींद से उठा मुझ में
फिर अपने हाथ में सब इंतिज़ाम उस ने लिया
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कभी भुलाया कभी याद कर लिया उस को
ये काम है तो बहुत मुझ से काम उस ने लिया
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शजर से बिछड़ा हुआ बर्ग-ए-ख़ुश्क हूँ 'फ़ैसल'
हवा ने अपने घराने में रख लिया है मुझे
अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है
मोहब्बतों को कोई बद-दुआ लगी हुई है
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क्या इल्म कि रोते हों तो मर जाते हों 'फ़ैसल'
वो लोग जो आँखों को कभी नम नहीं करते
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जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
ख़्वाब में नक़्ल-ए-मकानी की तरह होता है
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टैग : वहशत
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आज फिर आईना देखा है कई साल के बाद
कहीं इस बार भी उजलत तो नहीं की गई है
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रोज़ आसेब आते जाते हैं
ऐसा क्या है ग़रीब-ख़ाने में
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रात सितारों वाली थी और धूप भरा था दिन
जब तक आँखें देख रही थीं मंज़र अच्छे थे
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दुख नहीं है कि जल रहा हूँ मैं
रौशनी में बदल रहा हूँ मैं
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ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'
अब समुंदर पे चल रहा हूँ मैं
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तू ख़्वाब-ए-दिगर है तिरी तदफ़ीन कहाँ हो
दिल में तो किसी और को दफ़नाया हुआ है
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'फ़ैसल' मुकालिमा था हवाओं का फूल से
वो शोर था कि मुझ से सुना तक नहीं गया
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