हसन नईम के शेर
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे
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ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ
मैं तो ग़म से ही बे-मिसाल हुआ
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टैग : ग़म
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गर्द-ए-शोहरत को भी दामन से लिपटने न दिया
कोई एहसान ज़माने का उठाया ही नहीं
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टैग : ख़ुद्दारी
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जो भी कहना है कहो साफ़ शिकायत ही सही
इन इशारात-ओ-किनायात से जी डरता है
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ऐ सबा मैं भी था आशुफ़्ता-सरों में यकता
पूछना दिल्ली की गलियों से मिरा नाम कभी
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टैग : दिल्ली
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इतना रोया हूँ ग़म-ए-दोस्त ज़रा सा हँस कर
मुस्कुराते हुए लम्हात से जी डरता है
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टैग : मुस्कुराहट
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ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हंगाम तो है
'इक़बाल' की नवा से मुशर्रफ़ है गो 'नईम'
उर्दू के सर पे 'मीर' की ग़ज़लों का ताज है
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टैग : मीर तक़ी मीर
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सच तो ये कि अभी दिल को सुकूँ है लेकिन
अपने आवारा ख़यालात से जी डरता है
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मैं अपनी रूह में उस को बसा चुका इतना
अब उस का हुस्न भी पर्दा दिखाई देता है
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एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
एक सहरा के सिवा अब दरमियाँ कोई नहीं
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टैग : दरिया
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जुरअत कहाँ कि अपना पता तक बता सकूँ
जीता हूँ अपने मुल्क में औरों के नाम से
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सरा-ए-दिल में जगह दे तो काट लूँ इक रात
नहीं है शर्त कि मुझ को शरीक-ए-ख़्वाब बना
मैं एक बाब था अफ़साना-ए-वफ़ा का मगर
तुम्हारी बज़्म से उट्ठा तो इक किताब बना
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जहाँ दिखाई न देता था एक टीला भी
वहाँ से लोग उठा कर पहाड़ लाए हैं
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कोई मौसम हो यही सोच के जी लेते हैं
इक न इक रोज़ शजर ग़म का हरा तो होगा
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पयम्बरों ने कहा था कि झूट हारेगा
मगर ये देखिए अपना मुशाहिदा क्या है
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किसी ने डूबती सुब्हों तड़पती शामों को
ग़ज़ल के जाम में शब का ख़ुमार भेजा है
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मौजा-ए-अश्क से भीगी न कभी नोक-ए-क़लम
वो अना थी कि कभी दर्द न जी का लिक्खा
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कम नहीं ऐ दिल-ए-बेताब मता-ए-उम्मीद
दस्त-ए-मय-ख़्वार में ख़ाली ही सही जाम तो है
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आ बसे कितने नए लोग मकान-ए-जाँ में
बाम-ओ-दर पर है मगर नाम उसी का लिक्खा
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पाँव से लग के खड़ी है ये ग़रीब-उल-वतनी
उस को समझाओ कि हम अपने वतन आए हैं
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पय-ब-पय तलवार चलती है यहाँ आफ़ात की
दस्त-ओ-बाज़ू की ख़बर लूँ तो समझिए सर गया
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ख़ल्वत-ए-उम्मीद में रौशन है अब तक वो चराग़
जिस से उठता है क़रीब-ए-शाम यादों का धुआँ
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रूह का लम्बा सफ़र है एक भी इंसाँ का क़ुर्ब
मैं चला बरसों तो उन तक जिस्म का साया गया
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क्या फ़िराक़ ओ फ़ैज़ से लेना था मुझ को ऐ 'नईम'
मेरे आगे फ़िक्र-ओ-फ़न के कुछ नए आदाब थे
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कौन मुझ से पूछता है रोज़ इतने प्यार से
काम कितना हो चुका है वक़्त कितना रह गया
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जो मेरे दश्त-ए-जुनूँ में था फ़र्क़-ए-रू-ए-बहार
वही ख़िरद के ख़राबे में इक गुलाब बना
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