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इश्क़ औरंगाबादी

- 1780 | औरंगाबाद, भारत

इश्क़ औरंगाबादी के शेर

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'इश्क़' रौशन था वहाँ दीदा-ए-आहू से चराग़

मैं जो यक रात गया क़ैस के काशाने में

आईना कभी क़ाबिल-ए-दीदार होवे

गर ख़ाक के साथ उस को सरोकार होवे

ये बुत हिर्स-ओ-हवा के दिल के जब काबा में तोडूँगा

तुम्हारी सुब्हा में कब शैख़-जी ज़ुन्नार छोड़ूँगा

तू ने क्या देखा नहीं गुल का परेशाँ अहवाल

ग़ुंचा क्यूँ ऐंठा हुआ रहता है ज़रदार की तरह

मज़ा आब-ए-बक़ा का जान-ए-जानाँ

तिरा बोसा लिया होवे सो जाने

आँखों से दिल के दीद को माने नहीं नफ़स

आशिक़ को ऐन-हिज्र में भी वस्ल-ए-यार है

उस की आँखों के अगर वस्फ़ रक़म कीजिएगा

शाख़-ए-नर्गिस को क़लम कर के क़लम कीजिएगा

गर शैख़ ने आह की तो मत भूल

दिल में पत्थर के भी शरर है

आशिक़ की सियह-रोज़ी ईजाद हुई जिस दिन

उस रोज़ से ख़्वाबों की ये ज़ुल्फ़ परेशाँ है

हो गुल बुलबुल तभी बुलबुल पे बुलबुल फूल कर गुल हो

तिरे गर गुल-बदन बर में क़बा-ए-चश्म-ए-बुलबुल हो

गिरफ़्तारी की लज़्ज़त और निरा आज़ाद क्या जाने

ख़ुशी से काटना ग़म का दिल-ए-नाशाद क्या जाने

नहीं मालूम दिल में बैठ के कौन

चश्म की दूरबीं से देखे है

लैला का सियह ख़ेमा या आँख है हिरनों की

ये शाख़-ए-ग़ज़ालाँ है या नाला-ए-मज्नूँ है

मुक़ल्लिद बुल-हवस हम से कर दावा-ए-इश्क़

दाग़ लाला की तरह रखते हैं मादर-ज़ाद हम

कहियो ख़ुद-बीं से कि आईने में तन्हा मत बैठ

ख़तर आसेब का रहता है परी-ख़ाने में

दुख़्तर-ए-रज़ मत कहो नापाक है

आबरू-ए-दूदमान-ए-ताक है

शेवा-ए-अफ़्सुर्दगी को कम बूझ

ख़ाक का कहते हैं आलम पाक है

मुक़ाबिल हो हमारे कस्ब-ए-तक़लीदी से क्या ताक़त

अभी हम महव कर देते हैं आईने को इक हू में

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