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खलील तनवीर

1944

खलील तनवीर के शेर

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औरों की बुराई को देखूँ वो नज़र दे

हाँ अपनी बुराई को परखने का हुनर दे

रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए

हक़ बात लब पे आई तो हम बे-हुनर हुए

वो लोग अपने आप में कितने अज़ीम थे

जो अपने दुश्मनों से भी नफ़रत कर सके

परिंद शाख़ पे तन्हा उदास बैठा है

उड़ान भूल गया मुद्दतों की बंदिश में

तेरी आमद की मुंतज़िर आँखें

बुझ गईं ख़ाक हो गए रस्ते

अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं

जो लोग हम-ख़याल थे हम-सफ़र हुए

इस भरे शहर में दिन रात ठहरते ही नहीं

कौन यादों के सफ़र-नामे को तहरीर करे

हादसों की मार से टूटे मगर ज़िंदा रहे

ज़िंदगी जो ज़ख़्म भी तू ने दिया गहरा था

मैं क्या हूँ कौन हूँ क्या चीज़ मुझ में मुज़्मर है

कई हिजाब उठाए मगर हिजाब में हूँ

परिंद ऊँची उड़ानों की धुन में रहता है

मगर ज़मीं की हदों में बसर भी करता है

बहुत अज़ीज़ थे उस को सफ़र के हंगामे

वो सब के साथ चला था मगर अकेला था

तू मुझ को भूलना चाहे तो भूल सकता है

मैं एक हर्फ़-ए-तमन्ना तिरी किताब में हूँ

जो ज़ख़्म देता है तो बे-असर ही देता है

ख़लिश वो दे कि जिसे भूल भी पाऊँ मैं

वो लोग जिन की ज़माना हँसी उड़ाता है

इक उम्र बअ'द उन्हें मो'तबर भी करता है

अजीब शख़्स था उस को समझना मुश्किल है

किनार-ए-आब खड़ा था मगर वो प्यासा था

दूर तक एक स्याही का भँवर आएगा

ख़ुद में उतरोगे तो ऐसा भी सफ़र आएगा

तिरी निगाह तो ख़ुश-मंज़री पे रहती है

तेरी पसंद के मंज़र कहाँ से लाऊँ मैं

अपना लहू यतीम था कोई रंग ला सका

मुंसिफ़ सभी ख़मोश थे उज़्र-ए-जफ़ा के सामने

घर में क्या ग़म के सिवा था जो बहा ले जाता

मेरी वीरानी पे हँसता रहा दरिया उस का

लौह-ए-जहाँ पे इस तरह लिक्खा गया हूँ में

जिस का कोई जवाब नहीं वो सवाल हूँ

हर्फ़ को बर्ग-ए-नवा देता हूँ

यूँ मिरे पास हुनर कुछ भी नहीं

वो शहर छोड़ के मुद्दत हुई चला भी गया

हद-ए-उफ़ुक़ पे मगर चाँद रू-ब-रू है वही

ज़माना लाख सितारों को छू के जाए

अभी दिलों को मगर हाजत-ए-रफ़ू है वही

हुदूद-ए-दिल से जो गुज़रा वो जान-लेवा था

यूँ ज़लज़ले तो कई इस जहान में आए

ज़रा सी ठेस लगी थी कि चूर चूर हुआ

तिरे ख़याल का पैकर भी आबगीना था

शब की दीवार गिरी तो देखा

नोक-ए-नश्तर है सहर कुछ भी नहीं

जिन को ज़मीन दीदा-ए-दिल से अज़ीज़ थी

वो कम-निगाह लोग थे हिजरत कर सके

तमाम दर्द के रिश्तों से वास्ता रहे

हिसार-ए-जिस्म से निकलूँ तो बे-सदा हो जाऊँ

रवाँ थी कोई तलब सी लहू के दरिया में

कि मौज मौज भँवर उम्र का सफ़ीना था

हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं

सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी

किसे ख़याल था मिटती हुई इबारत का

महक रहा था चमन-दर-चमन समाअ'त का

क्या बस्तियाँ थीं जिन को हवा ने मिटा दिया

हर नक़्श-ए-बेनवा दर-ओ-दीवार देखिए

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