निज़ाम रामपुरी के शेर
उन को मैं इस तरह भुलाऊँ 'निज़ाम'
याद किस बात पर नहीं आते
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बहर-ए-हस्ती से कूच है दरपेश
याद मंसूबा-ए-हुबाब रहे
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लिपटा के शब-ए-वस्ल वो उस शोख़ का कहना
कुछ और हवस इस से ज़ियादा तो नहीं है
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न बन आया जब उन को कोई जवाब
तो मुँह फेर कर मुस्कुराने लगे
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बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है
गालियाँ भी मिलीं हम को तो मिलीं थोड़ी सी
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ज़िद है गर है तो हो सभी के साथ
या न मिलने की ज़िद मुझी से है
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हक़ बात तो ये है कि उसी बुत के वास्ते
ज़ाहिद कोई हुआ तो कोई बरहमन हुआ
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कू-ए-जानाँ में गर अब जाएँ भी तो क्या देखें
कोई रौज़न न रहा बन गई दीवार नई
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सच है 'निज़ाम' याद भी उस को न होंगे हम
पर क्या करें वो हम से भुलाया न जाएगा
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मज़मून सूझते हैं हज़ारों नए नए
क़ासिद ये ख़त नहीं मिरे ग़म की किताब है
तुम हो गए कुछ और न कुछ और हम हुए
कुछ तो सबब हुआ है कि वो रब्त कम हुए
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देना वो उस का साग़र-ए-मय याद है 'निज़ाम'
मुँह फेर कर इधर को उधर को बढ़ा के हाथ
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आए भी वो चले भी गए याँ किसे ख़बर
हैराँ हूँ मैं ख़याल है ये या कि ख़्वाब है
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आप देखें तो मिरे दिल में भी क्या क्या कुछ है
ये भी घर आप का है क्यूँ न फिर आबाद रहे
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उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना
फ़ाएदा ये भी ज़िंदगी से है
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उठता हूँ उस की बज़्म से जब हो के ना-उमीद
फिर फिर के देखता हूँ कोई अब पुकार ले
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मंज़ूर क्या है ये भी तो खुलता नहीं सबब
मिलता तो है वो हम से मगर कुछ रुका हुआ
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हुए नुमूद जो पिस्ताँ तो शर्म खा के कहा
ये क्या बला है जो उठती है मेरे सीने से
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गर कोई पूछे मुझे आप इसे जानते हैं
हो के अंजान वो कहते हैं कहीं देखा है
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आँखें फूटें जो झपकती भी हों
शब-ए-तन्हाई में कैसा सोना
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राह निकलेगी न कब तक कोई
तिरी दीवार है और सर मेरा
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इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
तुझ से तो न नामा-बर कहूँगा
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यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से
पूछते हाल हैं अक्सर मेरा
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क्या किसी से किसी का हाल कहें
नाम भी तो लिया नहीं जाता
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रात था वस्ल आज हिज्र का दिन
कुछ ज़माने का ए'तिबार नहीं
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वो इशारों में उस का कहना हाए
देखो अपने पराए बैठे हैं
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कहीं उस बज़्म तक रसाई हो
फिर कोई देखे एहतिमाम मिरा
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अब आओ मिल के सो रहें तकरार हो चुकी
आँखों में नींद भी है बहुत रात कम भी है
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किस क़दर हिज्र में बेहोशी है
जागना भी है हमारा सोना
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मैं न कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन
तुम ने किस वास्ते आना मिरे घर छोड़ दिया
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अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा
यही आबाद है दुनिया में ज़मीं थोड़ी सी
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तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र
आख़िर इक दिन तो हम को मरना था
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इक वो कि रात दिन रहें महफ़िल में उस की हाए
इक हम कि तरसें साया-ए-दीवार के लिए
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ये भी नया सितम है हिना तो लगाएँ ग़ैर
और उस की दाद चाहें वो मुझ को दिखा के हाथ
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जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं
सारी शरारत आप की मेरी नज़र में है
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अब तुम से क्या किसी से शिकायत नहीं मुझे
तुम क्या बदल गए कि ज़माना बदल गया
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दो दिन भी उस सनम से न अपनी निभी कभी
जब कुछ बनी तो फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से बिगड़ गई
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अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ हम 'निज़ाम'
हम वो नहीं रहे वो मोहब्बत नहीं रही
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अपनी अंदाज़ के कह शेर न कह ये तू 'निज़ाम'
कि चुनाँ बैठ गया और चुनीं बैठ गई
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ये दिन तो सर्फ़ आप के वादों में हो गए
अब दिन नया निकालिए इक़रार के लिए
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जो कि नादाँ है वो क्या जाने तिरी चाहत की क़द्र
ऐ परी दीवाना बनना काम है होशियार का
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मुंतज़िर हूँ किसी के आने का
किस की आँखों में आ के ख़्वाब रहे
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तेरा मिलना तो है मुश्किल मगर इतना तो हुआ
अपना मरना मुझे आसाँ न हुआ था सो हुआ
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किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा
क्यूँ चौंक चौंक जाते हो आवाज़-ए-पा के साथ
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दरबाँ से आप कहते थे कुछ मेरे बाब में
सुनता था मैं भी पास ही दर के खड़ा हुआ
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छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
रोज़ का रूठना नहीं जाता
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मेरे मिलने से जो यूँ हाथ उठा-बैठा तू
नहीं मालूम कि दिल में तिरे क्या बैठ गया
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ख़ुश्बू वो पसीने की तिरी याद न आ जाए
गुल कैसा कभी इत्र भी सूँघा न करेंगे
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दुश्मन से और होतीं बहुत बातें प्यार की
शुक्र-ए-ख़ुदा ये है कि वो बुत कम-सुख़न हुआ
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ये हवा सर्द चली और ये बादल आए
कहो साक़ी से कि साग़र चले बोतल आए
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