शाहिद कमाल के शेर
जब डूब के मरना है तो क्या सोच रहे हो
इन झील सी आँखों में उतर क्यूँ नहीं जाते
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जंग का शोर भी कुछ देर तो थम सकता है
फिर से इक अम्न की अफ़्वाह उड़ा दी जाए
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ये कैसा दश्त-ए-तहय्युर है याँ से कूच करो
हमारे पाँव से रफ़्तार खींचता है कोई
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तू मेरे साथ नहीं है तो सोचता हूँ मैं
कि अब तो तुझ से बिछड़ने का कोई डर भी नहीं
शाख़-ए-मिज़्गाँ पे महकने लगे ज़ख़्मों के गुलाब
पिछले मौसम की मुलाक़ात की बू ज़िंदा है
इन दिनों अपनी भी वहशत का अजब आलम है
घर में हम दश्त-ओ-बयाबान उठा लाए हैं
हवा की डोर में टूटे हुए तारे पिरोती है
ये तन्हाई अजब लड़की है सन्नाटे में रोती है
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टैग : तन्हाई
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हाँ वज़-ए-एहतियात का क़ाइल नहीं हूँ में
जो ज़ख़्म है जिगर में छुपाने से मैं रहा
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चश्म-ए-ख़ुश-आब की तमसील में रहने वाले
हम परिंदे हैं इसी झील में रहने वाले
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इक नए तर्ज़ पे आबाद करेंगे उस को
हम तिरे शहर की पहचान उठा लाए हैं
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इस आजिज़ी से किया उस ने मेरे सर का सवाल
ख़ुद अपने हाथ से तलवार तोड़ दी मैं ने
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रेत पर वो पड़ी है मुश्क कोई
तीर भी और कमान सा कुछ है
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बुरीदा-सर को सजा दे फ़सील-ए-नेज़ा पर
दरीदा जिस्म को फिर अर्सा-ए-क़िताल में रख
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तीर मत देख मिरे ज़ख़्म को देख
यार-ए-यार अपना अदू में गुम है
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किस लिए करते हो तुम हर्फ़-ए-मलामत से गुरेज़
हम कहाँ सोहबत-ए-जिब्रील में रहने वाले
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