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अज्ञात के शेर
फ़ज़ा मग़्मूम है साक़ी उठा छलकाएँ पैमाना
अँधेरा बढ़ चला है ला ज़रा क़िन्दील-ए-मय-ख़ाना
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ऐश के यार तो अग़्यार भी बन जाते हैं
दोस्त वो हैं जो बुरे वक़्त में काम आते हैं
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ज़रा सी बात थी अर्ज़-ए-तमन्ना पर बिगड़ बैठे
वो मेरी उम्र भर की दास्तान-ए-दर्द क्या सुनते
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टैग : शिकवा
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जोखम ऐ मर्दुम-ए-दीदा है समझ के रोना
डूब भी जाते हैं दरिया में नहाने वाले
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ना-तवानी का भी एहसाँ है मिरी गर्दन पर
कि तिरे पाँव से सर मुझ को उठाने न दिया
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अग़्यार भी हैं उस की गली में तो क्या गिला
वो गुल्सिताँ ही क्या है जहाँ ख़ार-ओ-ख़स नहीं
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डुबो के सारे सफ़ीने क़रीब साहिल के
है उन को फिर भी ये दावा कि ना-ख़ुदा हम हैं
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यारब पड़ी रहे मेरी मय्यत इसी तरह
बैठे रहें वो बाल परेशाँ किए हुए
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वो अयादत के लिए आए हैं लो और सही
आज ही ख़ूबी-ए-तक़दीर से हाल अच्छा है
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टैग : अयादत
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क्या मिला तुम को मिरे इश्क़ का चर्चा कर के
तुम भी रुस्वा हुए आख़िर मुझे रुस्वा कर के
लोग काँटों से बच के चलते हैं
मैं ने फूलों से ज़ख़्म खाए हैं
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सुना है तेरी महफ़िल में सुकून-ए-दिल भी मिलता है
मगर हम जब तिरी महफ़िल से आए बे-क़रार आए
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तू दिल पे बोझ ले के मुलाक़ात को न आ
मिलना है इस तरह तो बिछड़ना क़ुबूल है
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ये फ़क़त आप की इनायत है
वर्ना मैं क्या मिरी हक़ीक़त क्या
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किया है क़त्अ रिश्ता सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार का हम ने
कि शैख़ अपना मुख़ालिफ़ है तो दुश्मन बरहमन अपना
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ग़ैर को आने न दूँ तुम को कहीं जाने न दूँ
काश मिल जाए तुम्हारे घर की दरबानी मुझे
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तेरे निसार साक़िया जितनी पियूँ पिलाए जा
मस्त नज़र का वास्ता मस्त मुझे बनाए जा
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शक उन को था कि रात में बोसा न ले कोई
गालों पे रख के सोए कलाई तमाम रात
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क्यूँकर न लुत्फ़ बादा-कशी का हो आब में
बारिश में जो हुरूफ़ हैं वो हैं शराब में
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लड़ने को उस से रात मैं ग़ुस्से में लड़ लिया
पर जब वो उठ चला तो कलेजा पकड़ लिया
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वो कह के चले इतनी मुलाक़ात बहुत है
मैं ने कहा रुक जाओ अभी रात बहुत है
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मस्तों पे उँगलियाँ न उठाओ बहार में
देखो तो होश है भी किसी होशियार में
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- ग़ज़ल देखिए
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अगर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त
हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त
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बारिश हुई तो घर के दरीचे से लग के हम
चुप-चाप सोगवार तुम्हें सोचते रहे
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ज़िदों में तर्क-ए-तअल्लुक़ तो कर लिया लेकिन
सुकून उन को नहीं बे-क़रार हम भी हैं
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है दिल तिरा है जाँ तिरी ईमान है तिरा
तो कैसे मानूँ तेरा मुक़द्दर नहीं हूँ मैं
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ख़ुदा करे न ढले धूप तेरे चेहरे की
तमाम उम्र तिरी ज़िंदगी की शाम न हो
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टैग : जन्मदिन
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जीने की आरज़ू में जो मरते हैं सारी उम्र
शायद हयात नाम इसी मरहले का है
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कई जवाबों से अच्छी है ख़ामुशी मेरी
न जाने कितने सवालों की आबरू रक्खे
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रह गए सब्हा ओ ज़ुन्नार के झगड़े बाक़ी
धर्म हिन्दू में नहीं दीन मुसलमाँ में नहीं
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टैग : मज़हब
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खिलौनों की दुकानो रास्ता दो
मिरे बच्चे गुज़रना चाहते हैं
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ये कह के दिया उस ने दर्द-ए-मोहब्बत
जहाँ हम रहेंगे ये सामाँ रहेगा
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निकल के ख़ुल्द से उन को मिली ख़िलाफ़त-ए-अर्ज़
निकाले जाने की तोहमत हमारे सर आई
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टैग : औरत
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जानते हैं हम मोहब्बत-आज़माई हो चुकी
आओ लग जाओ गले बस अब लड़ाई हो चुकी
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न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम न इधर के हुए न उधर के हुए
रहे दिल में हमारे ये रंज-ओ-अलम न इधर के हुए न उधर के हुए
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इस मरज़ से कोई बचा भी है
चारागर इश्क़ की दवा भी है
कम-सिनी का हुस्न था वो ये जवानी की बहार
था यही तिल पहले भी रुख़ पर मगर क़ातिल न था
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दस्तूर है दुनिया का मगर ये तो बताओ
हम किस से मिलें किस से कहें ईद मुबारक
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दिल यही कहता चला है कू-ए-जानाँ की तरफ़
और थोड़ी दूर चलिए और थोड़ी दूर है
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रख के मुँह सो गए हम आतिशीं रुख़्सारों पर
दिल को था चैन तो नींद आ गई अँगारों पर
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जल्वे मचल पड़े तो सहर का गुमाँ हुआ
ज़ुल्फ़ें बिखर गईं तो सियह रात हो गई
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वस्ल को मौक़ूफ़ करना पड़ गया है चंद रोज़
अब मुझे मिलने न आना अब कोई शिकवा नहीं
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टैग : सोशल डिस्टेन्सिंग शायरी
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दर पे शाहों के नहीं जाते फ़क़ीर अल्लाह के
सर जहाँ रखते हैं सब हम वाँ क़दम रखते नहीं
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पलकों की हद को तोड़ के दामन पे आ गिरा
इक अश्क मेरे सब्र की तौहीन कर गया
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टैग : आँसू
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ग़ैर को दर्द सुनाने की ज़रूरत क्या है
अपने झगड़े में ज़माने की ज़रूरत क्या है
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तमाशा देख रहे थे जो डूबने का मिरे
मिरी तलाश में निकले हैं कश्तियाँ ले कर
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टैग : इश्क़
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गुलशन से कोई फूल मयस्सर न जब हुआ
तितली ने राखी बाँध दी काँटे की नोक पर
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टैग : रक्षाबन्धन
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अब मैं समझा तिरे रुख़्सार पे तिल का मतलब
दौलत-ए-हुस्न पे दरबान बिठा रक्खा है
व्याख्या
रुख़्सार अर्थात गाल, दौलत-ए-हुस्न अर्थात हुस्न की दौलत, दरबान अर्थात रखवाला। यह शे’र अपने विषय की नवीनता के कारण लोकप्रिय है। शे’र में केन्द्रीय स्थिति “रुख़्सार पर तिल” को प्राप्त है क्योंकि उसी के अनुरूप शायर ने विषय पैदा किया है। प्रियतम के गाल को दरबान(रखवाला) से तुलना करना शायर का कमाल है। और जब दौलत-ए-हुस्न कहा तो जैसे प्रियतम के सरापा को आँखों के सामने लाया हो।
रुख़्सार पर तिल होना सौन्दर्य का एक प्रतीक समझा जाता है। मगर चूँकि प्रियतम सुंदरता की आकृति है इस विशेषता के अनुरूप शायर ने यह ख़्याल बाँधा है कि जिस तरह बुरी नज़र से सुरक्षित रखने के लिए ख़ूबसूरत बच्चों के गाल पर काला टीका लगाया जाता है उसी तरह मेरे प्रियतम को लोगों की बुरी दृष्टि से बचाने के लिए ख़ुदा ने उसके गाल पर तिल रखा है। और जिस तरह धन-दौलत को लुटेरों से सुरक्षित रखने के लिए उस पर प्रहरी (रखवाले) बिठाए जाते हैं, ठीक उसी तरह ख़ुदा ने मेरे महबूब के हुस्न को बुरी नज़र से सुरक्षित रखने के लिए उसके गाल पर तिल बनाया है।
शफ़क़ सुपुरी
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टैग : रुख़्सार
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