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फ़रहत एहसास

1952 | दिल्ली, भारत

उत्तर-आधुनिक उर्दू शायरी की एक प्रख्यात शख़्सियत

उत्तर-आधुनिक उर्दू शायरी की एक प्रख्यात शख़्सियत

फ़रहत एहसास के शेर

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इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के

वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा

तो इंतिज़ार में बैठा हुआ हूँ शाम से मैं

चाँद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है

अक्स किस का है कि इतनी रौशनी पानी में है

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से

मोहब्बत कर के देखो ना मोहब्बत क्यूँ नहीं करते

किसी कली किसी गुल में किसी चमन में नहीं

वो रंग है ही नहीं जो तिरे बदन में नहीं

मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं

फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं

किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती

है यही एक ख़राबी मिरी तन्हाई की

हमारा ज़िंदा रहना और मरना एक जैसा है

हम अपने यौम-ए-पैदाइश को भी बरसी समझते हैं

एक बोसे के भी नसीब हों

होंठ इतने भी अब ग़रीब हों

वो अक़्ल-मंद कभी जोश में नहीं आता

गले तो लगता है आग़ोश में नहीं आता

हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है

शहर में जो भी हुआ है वो ख़ता मेरी है

तमाम पैकर-ए-बदसूरती है मर्द की ज़ात

मुझे यक़ीं है ख़ुदा मर्द हो नहीं सकता

सब के जैसी बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह

तेरे धोके में किसी और के शाने लग जाएँ

अंदर के हादसों पे किसी की नज़र नहीं

हम मर चुके हैं और हमें इस की ख़बर नहीं

औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर

जिस्म ख़ाली जो नज़र आए तो मर्द बैठे

शुस्ता ज़बाँ शगुफ़्ता बयाँ होंठ गुल-फ़िशाँ

सारी हैं तुझ में ख़ूबियाँ उर्दू ज़बान की

फिर सोच के ये सब्र किया अहल-ए-हवस ने

बस एक महीना ही तो रमज़ान रहेगा

एक बार उस ने बुलाया था तो मसरूफ़ था मैं

जीते-जी फिर कभी बारी ही नहीं आई मिरी

उस जगह जा के वो बैठा है भरी महफ़िल में

अब जहाँ मेरे इशारे भी नहीं जा सकते

दुनिया से कहो जो उसे करना है वो कर ले

अब दिल में मिरे वो अलल-एलान रहेगा

बड़ा वसीअ है उस के जमाल का मंज़र

वो आईने में तो बस मुख़्तसर सा रहता है

ये शहर वो है कि कोई ख़ुशी तो क्या देता

किसी ने दिल भी दुखाया नहीं बहुत दिन से

पूरी तरह से अब के तय्यार हो के निकले

हम चारागर से मिलने बीमार हो के निकले

हिज्र विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में

अक्सर दोनों गुल रहते हैं और जला करता हूँ मैं

उसे ख़बर थी कि हम विसाल और हिज्र इक साथ चाहते हैं

तो उस ने आधा उजाड़ रक्खा है और आधा बना दिया है

बन पाया हीर, राँझा अब भी राँझा है बहुत

देख वारिस-शाह तेरी हीर आधी रह गई

मुझे छू के हरा रंग बिछा दे मुझ पर

मैं भी इक शाख़ सी रखता हूँ शजर करने को

तमाम शहर की आँखों में रेज़ा रेज़ा हूँ

किसी भी आँख से उठता नहीं मुकम्मल मैं

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँखों में

बस यही देखता रहता हूँ कि अब क्या होगा

जंगलों को काट कर कैसा ग़ज़ब हम ने किया

शहर जैसा एक आदम-ख़ोर पैदा कर लिया

किस की है ये तस्वीर जो बनती नहीं मुझ से

मैं किस का तक़ाज़ा हूँ कि पूरा नहीं होता

इश्क़ अख़बार कब का बंद हुआ

दिल मिरा आख़िरी शुमारा है

उस से मिलने के लिए जाए तो क्या जाए कोई

उस ने दरवाज़े पे आईना लगा रक्खा है

इसे बच्चों के हाथों से उठाओ

ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है

सख़्त सर्दी में ठिठुरती है बहुत रूह मिरी

जिस्म-ए-यार कि बेचारी को सहारा मिल जाए

सख़्त तकलीफ़ उठाई है तुझे जानने में

इस लिए अब तुझे आराम से पहचानते हैं

हमें जब अपना तआ'रुफ़ कराना पड़ता है

जाने कितने दुखों को दबाना पड़ता है

मिरे सारे बदन पर दूरियों की ख़ाक बिखरी है

तुम्हारे साथ मिल कर ख़ुद को धोना चाहता हूँ मैं

कभी इस रौशनी की क़ैद से बाहर भी निकलो तुम

हुजूम-ए-हुस्न ने सारा सरापा घेर रक्खा है

अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं

लगता है रास्ते में कहीं खुल गया बदन

मोहब्बत फूल बनने पर लगी थी

पलट कर फिर कली कर ली है मैं ने

ये धड़कता हुआ दिल उस के हवाले कर दूँ

एक भी शख़्स अगर शहर में ज़िंदा मिल जाए

क़िस्सा-ए-आदम में एक और ही वहदत पैदा कर ली है

मैं ने अपने अंदर अपनी औरत पैदा कर ली है

मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा

तो वक़्त कहता है मुस्कुरा कर जनाब तय्यार हो रहा है

फ़रार हो गई होती कभी की रूह मिरी

बस एक जिस्म का एहसान रोक लेता है

ये तेरा मेरा झगड़ा है दुनिया को बीच में क्यूँ डालें

घर के अंदर की बातों पर ग़ैरों को गवाह नहीं करते

कौन सी ऐसी ख़ुशी है जो मिली हो एक बार

और ता-उम्र हमें जिस ने अज़िय्यत नहीं दी

बस मोहब्बत बस मोहब्बत बस मोहब्बत जान-ए-मन

बाक़ी सब जज़्बात का इज़हार कम कर दीजिए

जो इश्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज

ख़ुद को बहाल करना है खोना नहीं है आज

जिसे भी प्यास बुझानी हो मेरे पास रहे

कभी भी अपने लबों से छलकने लगता हूँ

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