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ऐतबार साजिद के शेर

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किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए

कैलन्डर के बदलने से मुक़द्दर कब बदलता है

मैं तकिए पर सितारे बो रहा हूँ

जनम-दिन है अकेला रो रहा हूँ

एक ही शहर में रहना है मगर मिलना नहीं

देखते हैं ये अज़िय्यत भी गवारा कर के

फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे

ऐसे ज़िंदा थे कि जीने की अलामत हम थे

अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को

वो भी दिन थे कि कभी तेरी ज़रूरत हम थे

अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे

ये ज़िंदगी तिरी आग़ोश में गुज़र जाए

गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर

इक नई बात निकल आती है हर बात के साथ

ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम

अब अपने आप को भी छोड़ देना चाहते हैं हम

हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर गए

देख तेरा क़स्र-ए-आली-शान ख़ाली कर दिया

तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो

मैं बहुत दिनों से उदास हूँ मुझे कोई शाम उधार दो

डाइरी में सारे अच्छे शेर चुन कर लिख लिए

एक लड़की ने मिरा दीवान ख़ाली कर दिया

फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है

बाहर कितना सन्नाटा है अंदर कितनी वहशत है

किसे पाने की ख़्वाहिश है कि 'साजिद'

मैं रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद को खो रहा हूँ

रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को

किसी के दर्द को इस दिल में कितने साल पालेगा

इन दूरियों ने और बढ़ा दी हैं क़ुर्बतें

सब फ़ासले वबा की तवालत से मिट गए

मेरी पोशाक तो पहचान नहीं है मेरी

दिल में भी झाँक मिरी ज़ाहिरी हालत पे जा

तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं

किसी से इतनी मगर क़ुर्बतें भी ठीक नहीं

जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे

वही लोग हैं मिरी आरज़ू वही सूरतें मुझे चाहिएँ

अभी रेल के सफ़र में हैं बहुत निहाल दोनों

कहीं रोग बन जाए यही साथ दो घड़ी का

मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से

मुनफ़रिद हम ग़म-ए-हालात लिए फिरते हैं

तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी

शिकस्ता आईनों को जोड़ देना चाहते हैं हम

जिस को हम ने चाहा था वो कहीं नहीं इस मंज़र में

जिस ने हम को प्यार किया वो सामने वाली मूरत है

भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें

मिरे दिल मिरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें

छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ

लोग ज़िंदा हैं अजब सूरत-ए-हालात के साथ

जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी ज़ाहिर की

छुपाए अपने ग़म इज़्तिराब मैं ने भी

इतना पसपा हो दीवार से लग जाएगा

इतने समझौते कर सूरत-ए-हालात के साथ

दिए मुंडेर रख आते हैं हम हर शाम जाने क्यूँ

शायद उस के लौट आने का कुछ इम्कान अभी बाक़ी है

मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द

मुझे अपने रंग में रंग दो मिरे सारे रंग उतार दो

रस्ते का इंतिख़ाब ज़रूरी सा हो गया

अब इख़्तिताम-ए-बाब ज़रूरी सा हो गया

मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती

वगरना सिर्फ़ बाम-ओ-दर से उल्फ़त कौन रखता है

ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की

हमारा मसअला फ़क़त क़लम दवात ही नहीं

बरसों ब'अद हमें देखा तो पहरों उस ने बात की

कुछ तो गर्द-ए-सफ़र से भाँपा कुछ आँखों से जान लिया

पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे

रग रग में उतरती हुई तन्हाई तो अब है

ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था

उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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