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अर्श सिद्दीक़ी

1927 - 1997 | मुल्तान, पाकिस्तान

अर्श सिद्दीक़ी के शेर

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हाँ समुंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच

डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा

इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ

संग-दिल तुझे भी ख़बर है कि क्या हुआ

हम कि मायूस नहीं हैं उन्हें पा ही लेंगे

लोग कहते हैं कि ढूँडे से ख़ुदा मिलता है

वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए

अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया

देख रह जाए तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर

घर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगा

बस यूँही तन्हा रहूँगा इस सफ़र में उम्र भर

जिस तरफ़ कोई नहीं जाता उधर जाता हूँ मैं

मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता

इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को

एक लम्हे को तुम मिले थे मगर

उम्र भर दिल को हम मसलते रहे

हम ने चाहा था तेरी चाल चलें

हाए हम अपनी चाल से भी गए

ज़माने भर ने कहा 'अर्श' जो, ख़ुशी से सहा

पर एक लफ़्ज़ जो उस ने कहा सहा गया

उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती

इस शहर में चलती है हवा सहमी हुई सी

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