Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
noImage

जुरअत क़लंदर बख़्श

1748 - 1809 | लखनऊ, भारत

अपनी शायरी में महबूब के साथ मामला-बंदी के मज़मून के लिए मशहूर, नौजवानी में नेत्रहीन हो गए

अपनी शायरी में महबूब के साथ मामला-बंदी के मज़मून के लिए मशहूर, नौजवानी में नेत्रहीन हो गए

जुरअत क़लंदर बख़्श के शेर

7K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

हम हैं वो जिंस कि कहते हैं जिसे ग़म 'जुरअत'

है मोहब्बत के सिवा कौन ख़रीदार अपना

दिल-ए-वहशी को ख़्वाहिश है तुम्हारे दर पे आने की

दिवाना है व-लेकिन बात करता है ठिकाने की

क़फ़स में हम-सफ़ीरो कुछ तो मुझ से बात कर जाओ

भला मैं भी कभी तो रहने वाला था गुलिस्ताँ का

रखे है लज़्ज़त-ए-बोसा से मुझ को गर महरूम

तो अपने तू भी होंटों तलक ज़बाँ पहुँचा

सीखिए 'जुरअत' किसी से कोई बाज़ी कोई खेल

इस बहाने से कोई वाँ हम को ले तो जाएगा

आलम-ए-मस्ती में मेरे मुँह से कुछ निकला जो रात

बोल उठा तेवरी चढ़ा कर वो बुत-ए-मय-ख़्वार चुप

दोस्तो टाँके दो एहसान टुक इतना करो

ले चलो मुझ को वहीं तुम मैं जहाँ टुकड़े हुआ

दूरी-ए-यार से होवे तो किसी शक्ल नजात

रोज़ हम इस लिए हो आते हैं दो चार के पास

लाश को मेरी छुपा कर इक कुएँ में डाल दो

यारो मैं कुश्ता हूँ इक पर्दा-नशीं की चाह का

ज़ाहिदा ज़ोहद-ओ-रियाज़त हो मुबारक तुझ को

क्यूँ कि तक़्वा से मियाँ मेरी तो बहबूद नहीं

छोड़ कर तस्बीह ली ज़ुन्नार उस बुत के लिए

थे तो अहल-ए-दीं पर इस दिल ने बरहमन कर दिया

की बे-ज़री फ़लक ने हवाले नजीब के

पाजी हर एक साहब-ए-ज़र आए है नज़र

बाल हैं बिखरे बैंड हैं टूटे कान में टेढ़ा बाला है

'जुरअत' हम पहचान गए हैं दाल में काला काला है

अहवाल क्या बयाँ मैं करूँ हाए तबीब

है दर्द उस जगह कि जहाँ का नहीं इलाज

ता-सुब्ह मिरी आह-ए-जहाँ-सोज़ से कल रात

क्या गुम्बद-ए-अफ़्लाक ये हम्माम सा था गर्म

शब-ए-हिज्र थी और मैं रो रहा था

कोई जागता था कोई सो रहा था

यूँ उठे वो बज़्म में ताज़ीम को ग़ैरों की हाए

हम-नशीं तू बैठ याँ हम से बैठा जाएगा

आँख उठा कर उसे देखूँ हूँ तो नज़रों में मुझे

यूँ जताता है कि क्या तुझ को नहीं डर मेरा

आँख लगती नहीं 'जुरअत' मिरी अब सारी रात

आँख लगते ही ये कैसा मुझे आज़ार लगा

मुझ मस्त को क्यूँ भाए वो साँवली सूरत

जी दौड़े है मय-कश का ग़िज़ा-ए-नमकीं पर

ग़म मुझे ना-तवान रखता है

इश्क़ भी इक निशान रखता है

उस शख़्स ने कल हातों ही हातों में फ़लक पर

सौ बार चढ़ाया मुझे सौ बार उतारा

चाह की चितवन मेरी आँख उस की शरमाई हुई

ताड़ ली मज्लिस में सब ने सख़्त रुस्वाई हुई

ये सवाद-ए-शहर और ऐसा कहाँ हुस्न-ए-मलीह

शश-जिहत में मुल्क देखा ही नहीं पंजाब सा

हाथ मलते हुए आज आते हैं सब रह-गुज़रे

जा-ए-हैरत है कि मैं क्यूँ सर-ए-बाज़ार था

लाज़िम है कि आग़ाज़ हो अंजाम से पहले

ले लेने दो बोसा मुझे दुश्नाम से पहले

क़हर थीं दर-पर्दा शब मज्लिस में उस की शोख़ियाँ

ले गया दिल सब के वो और सब से शरमाता रहा

आलूदा-ब-ख़ूँ चश्म से टपके है जो आँसू

सब कहते हैं हैरत से ये मोती है कि मूँगा

नासेह बहुत ब-फ़िक्र-ए-रफ़ू था पे जूँ हुबाब

मुतलक़ उस के हाथ मिरा पैरहन लगा

हिज्र में मुज़्तरिब सा हो हो के

चार-सू देखता हूँ रो रो के

जो कि सज्दा करे बुत को मिरे मशरब में

आक़िबत उस की किसी तौर से महमूद नहीं

इस शोला-ख़ू को देख हुआ शैख़ का ये हाल

जुब्बे को आग लग उठी अम्मामा जल गया

हशमत-ए-दुनिया की कुछ दिल में हवस बाक़ी नहीं

इश्क़ की दौलत से हैं ऐसे ही आली-जाह हम

जिस नूर के बक्के को मह-ओ-ख़ुर ने देखा

कम-बख़्त ये दिल लोटे है उस पर्दा-नशीं पर

आया था शब को छुप के वो रश्क-ए-चमन सो आह

फैली ये घर में बू कि मोहल्ला महक गया

चुपके चुपके रोते हैं मुँह पर दुपट्टा तान कर

घर जो याद आया किसी का अपने घर में आन कर

ख़लल इक पड़ गया नाहक़ गुल बुलबुल की सोहबत में

अबस खोला था तू ने बाग़ में गुल बदन अपना

इलाही क्या इलाक़ा है वो जब लेता है अंगड़ाई

मिरे सीने में सब ज़ख़्मों के टाँके टूट जाते हैं

गर कहीं पाऊँ अकेला तो बलाएँ ले कर

किस मज़े से तुझे लूँ छाती से दिल-दार लगा

वाँ से आया है जवाब-ए-ख़त कोई सुनियो तो ज़रा

मैं नहीं हूँ आप मैं मुझ से समझा जाएगा

एक तो मर्ज़ी थी जाने को मेरी उस तरफ़

तिस पे दिल आँखों से बाराँ ख़ूँ का बरसाता रहा

हैराँ हो सर देख मिरा अपनी ज़मीं पर

देखो तो लिखा क्या है मिरी लौह-ए-जबीं पर

तुझ सा जो कोई तुझ को मिल जाएगा तो बातें

मेरी तरह से तू भी चुपका सुना करेगा

दौर में क्या उस के कोई नौबत-ए-इशरत बजाए

जब कि ख़ुद गर्दूं हो इक औंधा सा नक़्क़ारा पड़ा

जल्दी तलब-ए-बोसा पे कीजे तो कहे वाह

ऐसा इसे क्या समझे हो तुम मुँह का निवाला

आस्तीन-ए-मौज दरिया से जुदा होती नहीं

रब्त तेरा चश्म से क्यूँ आस्तीं जाता रहा

लब-ए-ख़याल से उस लब का जो लिया बोसा

तो मुँह ही मुँह में अजब तरह का मज़ा आया

देखो दुज़्दीदा निगह से तो निकल कर इक रात

चोर सा कौन खड़ा है पस-ए-दीवार लगा

जो आज चढ़ाते हैं हमें अर्श-ए-बरीं पर

दो दिन को उतारेंगे वही लोग ज़मीं पर

जहाँ के बाग़ में हम भी बहार दिखलाते

ये रंग-ए-ग़ुंचा जो अपनी गिरह में ज़र होता

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

GET YOUR PASS
बोलिए