Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
noImage

क़ाएम चाँदपुरी

1725 - 1794 | फ़ैज़ाबाद, भारत

18वी सदी के अग्रणी शायर, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।

18वी सदी के अग्रणी शायर, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।

क़ाएम चाँदपुरी के शेर

4.1K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर

खुली जो आँख तो गोया कि एहतेलाम हुआ

शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह

इर्स है अपनी हम आदम के अगर पोते हैं

होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह

इस उम्र में है वर्ना मज़ा क्या ख़िज़ाब का

शिकवा बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को

पहुँची जो कुछ अज़िय्यत अपने गुमाँ से मुझ को

पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत

पर शब की मिन्नतों ने डुबो दी रही सही

जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया

नर्गिस का उसे जल्वा इक पश्म नज़र आया

दूँ हम-सरी में बैठ के किस ना-सज़ा के साथ

याँ बहस का दिमाग़ नहीं है ख़ुदा के साथ

डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद

बताऊँ कौन सी उस की मैं उस्तुवार तरफ़

सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी

आप रखते थे शब जहाँ तशरीफ़

'असर' मुलाज़िम-ए-सरकार-ए-गिर्या हो

याँ जुज़ गुहर ख़ज़ाने में तनख़्वाह ही नहीं

लगाई आग पानी में ये किस के अक्स ने प्यारे

कि हम-दीगर चली हैं मौज से दरिया में शमशीरें

मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो

जी निकल जाएगा ज़ंजीर की झंकार के साथ

गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे ख़ुश्क

देर तक टपकेंगे बाराँ के शजर भीगे हुए

परवाने की शब की शाम हूँ मैं

या रोज़ की शम्अ' की सहर हूँ

जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे

कि आँख भर के फिर सू-ए-गुल्सिताँ देखा

गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में

मारे जाड़े के ठिरे बैठे हैं

क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे मजनूँ

ख़ार से पूछ कि सब नोक-ए-ज़बाँ है उस को

मुझ बे-गुनह के क़त्ल का आहंग कब तलक

अब बिना-ए-सुल्ह रखें जंग कब तलक

पहले ही गधा मिले जहाँ शैख़

उस काबा को है सलाम अपना

हाथों से दिल दीदा के आया हूँ निपट तंग

आँखों को रोऊँ या मैं करूँ सरज़निश-ए-दिल

बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल

लेक वाँ तक उम्र ने अपनी वफ़ादारी की

जिस मुसल्ले पे छिड़किए शराब

अपने आईन में वो पाक नहीं

ग़ैर से मिलना तुम्हारा सुन के गो हम चुप रहे

पर सुना होगा कि तुम को इक जहाँ ने क्या कहा

थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा

कुछ हरमज़दगईं अपनी भी तुझे याद हैं शैख़

कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग

अल्लाह ही निबाहे मियाँ आज घर तलक

मअनी आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़

आरे दलील-ए-राह-ए-हक़ीक़त मजाज़ है

फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की चर्ख़

अब तलक तू ने ख़बर दी नहीं सैलाब के तईं

अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या

साकिन-ए-दैर तो जाने हैं मुसलमाँ मुझ को

मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन

बे-तलब अब भी जो मिल जाए तो इंकार नहीं

ईराद कर पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम

बे-रब्तियाँ हैं समरा-ए-हंगाम-ए-इश्तियाक़

तर्क कर अपना भी कि इस राह में

हर कोई शायान-ए-रिफ़ाक़त नहीं

ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़

देखा नहीं है तू ने वो काफ़िर फ़रंग का

दिल चुरा ले के अब किधर को चला

तिरे चोर की कही थी भला

कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार था

लेकिन इतनी तो उक़ूबत का सज़ा-वार था

किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए

इक़रार यक तरफ़ है तो इंकार यक तरफ़

ख़स नमत साथ मौज के लग ले

बहते बहते कहीं तो जाइएगा

दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने

हाथ ने पाँव ने मुखड़े ने दहन ने लब ने

शैख़-जी आया मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम

पूछते तुम से कि अब वो पारसाई क्या हुई

शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो

लेक हज़रत-आदमी होना निहायत दूर है

आगे मिरे ग़ैर से गो तुम ने बात की

सरकार की नज़र को तो पहचानता हूँ मैं

'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ

इस मर्दुमी के शोर पे किस काम का हूँ मैं

'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल

वर्ना ये पेश-ए-अहल-ए-हुनर क्या कमाल था

पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़

ता-कुजा ख़ातिर-ए-वज़ी-ओ-शरीफ़

टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़

कुछ क़स्र-ए-दिल नहीं कि बनाया जाएगा

सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ

जा के बोला कि बस अब आगे मैं जल जाऊँगा

रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से

हम ने की तौबा कहीं नाम-ए-ख़राबात नहीं

मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे

मुझे चलने दे आगे या टुक उस को पेशतर ले जा

इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना

हर सर मुतहम्मिल नहीं इस बार-ए-गिराँ का

हम दिवानों को बस है पोशिश से

दामन-ए-दश्त चादर-ए-महताब

मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या

'क़ाएम' वो मय-फ़रोश की अपने दुकाँ रहे

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए