क़ाएम चाँदपुरी के शेर
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
खुली जो आँख तो गोया कि एहतेलाम हुआ
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शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह
इर्स है अपनी हम आदम के अगर पोते हैं
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होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
इस उम्र में है वर्ना मज़ा क्या ख़िज़ाब का
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शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
पहुँची जो कुछ अज़िय्यत अपने गुमाँ से मुझ को
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पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत
पर शब की मिन्नतों ने डुबो दी रही सही
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जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
नर्गिस का उसे जल्वा इक पश्म नज़र आया
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दूँ हम-सरी में बैठ के किस ना-सज़ा के साथ
याँ बहस का दिमाग़ नहीं है ख़ुदा के साथ
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डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
बताऊँ कौन सी उस की मैं उस्तुवार तरफ़
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सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
आप रखते थे शब जहाँ तशरीफ़
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आ ऐ 'असर' मुलाज़िम-ए-सरकार-ए-गिर्या हो
याँ जुज़ गुहर ख़ज़ाने में तनख़्वाह ही नहीं
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लगाई आग पानी में ये किस के अक्स ने प्यारे
कि हम-दीगर चली हैं मौज से दरिया में शमशीरें
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मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो
जी निकल जाएगा ज़ंजीर की झंकार के साथ
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गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे न ख़ुश्क
देर तक टपकेंगे बाराँ के शजर भीगे हुए
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परवाने की शब की शाम हूँ मैं
या रोज़ की शम्अ' की सहर हूँ
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न जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे
कि आँख भर के न फिर सू-ए-गुल्सिताँ देखा
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गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
मारे जाड़े के ठिरे बैठे हैं
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क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे ऐ मजनूँ
ख़ार से पूछ कि सब नोक-ए-ज़बाँ है उस को
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मुझ बे-गुनह के क़त्ल का आहंग कब तलक
आ अब बिना-ए-सुल्ह रखें जंग कब तलक
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पहले ही गधा मिले जहाँ शैख़
उस काबा को है सलाम अपना
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हाथों से दिल ओ दीदा के आया हूँ निपट तंग
आँखों को रोऊँ या मैं करूँ सरज़निश-ए-दिल
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बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल
लेक वाँ तक उम्र ने अपनी वफ़ादारी न की
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जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
अपने आईन में वो पाक नहीं
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टैग : शराब
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ग़ैर से मिलना तुम्हारा सुन के गो हम चुप रहे
पर सुना होगा कि तुम को इक जहाँ ने क्या कहा
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थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
कुछ हरमज़दगईं अपनी भी तुझे याद हैं शैख़
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कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग
अल्लाह ही निबाहे मियाँ आज घर तलक
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मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
आरे दलील-ए-राह-ए-हक़ीक़त मजाज़ है
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फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की ऐ चर्ख़
अब तलक तू ने ख़बर दी नहीं सैलाब के तईं
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अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या
साकिन-ए-दैर तो जाने हैं मुसलमाँ मुझ को
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मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
बे-तलब अब भी जो मिल जाए तो इंकार नहीं
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ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
बे-रब्तियाँ हैं समरा-ए-हंगाम-ए-इश्तियाक़
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तर्क कर अपना भी कि इस राह में
हर कोई शायान-ए-रिफ़ाक़त नहीं
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ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
देखा नहीं है तू ने वो काफ़िर फ़रंग का
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दिल चुरा ले के अब किधर को चला
ऐ तिरे चोर की कही थी भला
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कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
लेकिन इतनी तो उक़ूबत का सज़ा-वार न था
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किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
इक़रार यक तरफ़ है तो इंकार यक तरफ़
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ख़स नमत साथ मौज के लग ले
बहते बहते कहीं तो जाइएगा
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दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने
हाथ ने पाँव ने मुखड़े ने दहन ने लब ने
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शैख़-जी आया न मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम
पूछते तुम से कि अब वो पारसाई क्या हुई
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शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो
लेक हज़रत-आदमी होना निहायत दूर है
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आगे मिरे न ग़ैर से गो तुम ने बात की
सरकार की नज़र को तो पहचानता हूँ मैं
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'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
इस मर्दुमी के शोर पे किस काम का हूँ मैं
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'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
वर्ना ये पेश-ए-अहल-ए-हुनर क्या कमाल था
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पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
ता-कुजा ख़ातिर-ए-वज़ी-ओ-शरीफ़
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टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
कुछ क़स्र-ए-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा
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सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ
जा के बोला कि बस अब आगे मैं जल जाऊँगा
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रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
हम ने की तौबा कहीं नाम-ए-ख़राबात नहीं
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मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे
मुझे चलने दे आगे या टुक उस को पेशतर ले जा
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ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना
हर सर मुतहम्मिल नहीं इस बार-ए-गिराँ का
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हम दिवानों को बस है पोशिश से
दामन-ए-दश्त ओ चादर-ए-महताब
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मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
'क़ाएम' वो मय-फ़रोश की अपने दुकाँ रहे
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