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Rais Farogh's Photo'

रईस फ़रोग़

1926 - 1982 | कराची, पाकिस्तान

नई ग़ज़ल के अग्रणी पाकिस्तानी शायरों में विख्यात।

नई ग़ज़ल के अग्रणी पाकिस्तानी शायरों में विख्यात।

रईस फ़रोग़ के शेर

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लोग नाज़ुक थे और एहसास के वीराने तक

वो गुज़रते हुए आँखों की जलन से आए

घर में तो अब क्या रक्खा है वैसे आओ तलाश करें

शायद कोई ख़्वाब पड़ा हो इधर उधर किसी कोने में

फ़स्ल तुम्हारी अच्छी होगी जाओ हमारे कहने से

अपने गाँव की हर गोरी को नई चुनरिया ला देना

मेरा भी एक बाप था अच्छा सा एक बाप

वो जिस जगह पहुँच के मरा था वहीं हूँ मैं

ठंडी चाय की प्याली पी के

रात की प्यास बुझाई है

अब की रुत में जब धरती को बरखा की महकार मिले

मेरे बदन की मिट्टी को भी रंगों में नहला देना

इश्क़ वो कार-ए-मुसलसल है कि हम अपने लिए

एक लम्हा भी पस-अंदाज़ नहीं कर सकते

धूप मुसाफ़िर छाँव मुसाफ़िर आए कोई कोई जाए

घर में बैठा सोच रहा हूँ आँगन है या रस्ता है

कुछ इतने पास से हो कर वो रौशनी गुज़री

कि आज तक दर-ओ-दीवार को मलाल सा है

आएगा मेरे बाद 'फ़रोग़' इन का ज़माना

जिस दौर का मैं हूँ मिरे अशआर नहीं हैं

बस्तियों में हम भी रहते हैं मगर

जैसे आवारा हवा सहराओं में

मेरे आँगन की उदासी गई

रोज़ मेहमान बुलाए मैं ने

हम कोई अच्छे चोर नहीं पर एक दफ़अ तो हम ने भी

सारा गहना लूट लिया था आधी रात के मेहमाँ का

लाखों ही बार बुझ के जला दर्द का दिया

सो एक बार और बुझा फिर जला नहीं

अपने हालात से मैं सुल्ह तो कर लूँ लेकिन

मुझ में रू-पोश जो इक शख़्स है मर जाएगा

हुस्न को हुस्न बनाने में मिरा हाथ भी है

आप मुझ को नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकते

इक यही दुनिया बदलती है 'फ़रोग़'

कैसी कैसी अजनबी दुनियाओं में

मैं ने कितने रस्ते बदले लेकिन हर रस्ते में 'फ़रोग़'

एक अंधेरा साथ रहा है रौशनियों के हुजूम लिए

लोग अच्छे हैं बहुत दिल में उतर जाते हैं

इक बुराई है तो बस ये है कि मर जाते हैं

रू-ए-ज़मीं पे चार अरब मेरे अक्स हैं

इन में से मैं भी एक हूँ चाहे कहीं हूँ मैं

दिन के शोर में शामिल शायद कोई तुम्हारी बात भी हो

आवाज़ों के उलझे धागे सुलझाएँगे शाम को

तेज़ हवा के साथ चला है ज़र्द मुसाफ़िर मौसम का

ओस ने दामन थाम लिया तो पल-दो-पल को रुका भी है

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