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सीमाब अकबराबादी

1882 - 1951 | आगरा, भारत

अग्रणी पूर्व-आधुनिक शायरों में विख्यात, सैंकड़ों शागिर्दों के उस्ताद।

अग्रणी पूर्व-आधुनिक शायरों में विख्यात, सैंकड़ों शागिर्दों के उस्ताद।

सीमाब अकबराबादी के शेर

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कहानी मेरी रूदाद-ए-जहाँ मालूम होती है

जो सुनता है उसी की दास्ताँ मालूम होती है

हाए 'सीमाब' उस की मजबूरी

जिस ने की हो शबाब में तौबा

ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना

वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी

कहानी है तो इतनी है फ़रेब-ए-ख़्वाब-ए-हस्ती की

कि आँखें बंद हूँ और आदमी अफ़्साना हो जाए

क़फ़स की तीलियों में जाने क्या तरकीब रक्खी है

कि हर बिजली क़रीब-ए-आशियाँ मालूम होती है

दिल-ए-आफ़त-ज़दा का मुद्दआ क्या

शिकस्ता साज़ क्या उस की सदा क्या

रोज़ कहता हूँ कि अब उन को देखूँगा कभी

रोज़ उस कूचे में इक काम निकल आता है

वो आईना हो या हो फूल तारा हो कि पैमाना

कहीं जो कुछ भी टूटा मैं यही समझा मिरा दिल है

ये शराब-ए-इश्क़ 'सीमाब' है पीने की चीज़

तुंद भी है बद-मज़ा भी है मगर इक्सीर है

परेशाँ होने वालों को सुकूँ कुछ मिल भी जाता है

परेशाँ करने वालों की परेशानी नहीं जाती

ख़ुदा और नाख़ुदा मिल कर डुबो दें ये तो मुमकिन है

मेरी वज्ह-ए-तबाही सिर्फ़ तूफ़ाँ हो नहीं सकता

तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ

नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी

ग़म मुझे हसरत मुझे वहशत मुझे सौदा मुझे

एक दिल दे कर ख़ुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे

क्या ढूँढने जाऊँ मैं किसी को

अपना मुझे ख़ुद पता नहीं है

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला

सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला

है हुसूल-ए-आरज़ू का राज़ तर्क-ए-आरज़ू

मैं ने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे

मिरी दीवानगी पर होश वाले बहस फ़रमाएँ

मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की ज़रूरत है

बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की

शान तेरी है किबरियाई की

देखते ही देखते दुनिया से मैं उठ जाऊँगा

देखती की देखती रह जाएगी दुनिया मुझे

दुनिया है ख़्वाब हासिल-ए-दुनिया ख़याल है

इंसान ख़्वाब देख रहा है ख़याल में

दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में

इक आईना था टूट गया देख-भाल में

क्यूँ जाम-ए-शराब-ए-नाब माँगूँ

साक़ी की नज़र में क्या नहीं है

देखते रहते हैं छुप-छुप के मुरक़्क़ा तेरा

कभी आती है हवा भी तो छुपा लेते हैं

'सीमाब' दिल हवादिस-ए-दुनिया से बुझ गया

अब आरज़ू भी तर्क-ए-तमन्ना से कम नहीं

मिरी ख़ामोशियों पर दुनिया मुझ को तअन देती है

ये क्या जाने कि चुप रह कर भी की जाती हैं तक़रीरें

लहू से मैं ने लिखा था जो कुछ दीवार-ए-ज़िंदाँ पर

वो बिजली बन के चमका दामन-ए-सुब्ह-ए-गुलिस्ताँ पर

सारे चमन को मैं तो समझता हूँ अपना घर

जैसे चमन में मेरा कोई आशियाँ बना

गुनाहों पर वही इंसान को मजबूर करती है

जो इक बे-नाम सी फ़ानी सी लज़्ज़त है गुनाहों में

बरहमन कहता था बरहम शैख़ बोल उठा अहद

हर्फ़ के इक फेर से दोनों में झगड़ा हो गया

हुस्न में जब नाज़ शामिल हो गया

एक पैदा और क़ातिल हो गया

ये मेरी तीरा-नसीबी ये सादगी ये फ़रेब

गिरी जो बर्क़ मैं समझा चराग़-ए-ख़ाना मिला

माज़ी-ए-मरहूम की नाकामियों का ज़िक्र छोड़

ज़िंदगी की फ़ुर्सत-ए-बाक़ी से कोई काम ले

मैं देखता हूँ आप को हद्द-ए-निगाह तक

लेकिन मिरी निगाह का क्या ए'तिबार है

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाई थी चार दिन

दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में

नशात-ए-हुस्न हो जोश-ए-वफ़ा हो या ग़म-ए-इश्क़

हमारे दिल में जो आए वो आरज़ू हो जाए

तेरे जल्वों ने मुझे घेर लिया है दोस्त

अब तो तन्हाई के लम्हे भी हसीं लगते हैं

रंग भरते हैं वफ़ा का जो तसव्वुर में तिरे

तुझ से अच्छी तिरी तस्वीर बना लेते हैं

वो दुनिया थी जहाँ तुम बंद करते थे ज़बाँ मेरी

ये महशर है यहाँ सुननी पड़ेगी दास्ताँ मेरी

जब दिल पे छा रही हों घटाएँ मलाल की

उस वक़्त अपने दिल की तरफ़ मुस्कुरा के देख

चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है

क़फ़स में रह के क़द्र-ए-आशियाँ मालूम होती है

मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इंसाँ पर

सितारों की चमक से चोट लगती है रग-ए-जाँ पर

तअ'ज्जुब क्या लगी जो आग 'सीमाब' सीने में

हज़ारों दिल में अँगारे भरे थे लग गई होगी

मरकज़ पे अपने धूप सिमटती है जिस तरह

यूँ रफ़्ता रफ़्ता तेरे क़रीब रहा हूँ मैं

अब वहाँ दामन-कशी की फ़िक्र दामन-गीर है

ये मिरे ख़्वाब-ए-मोहब्बत की नई ताबीर है

सहरा से बार बार वतन कौन जाएगा

क्यूँ जुनूँ यहीं उठा लाऊँ घर को मैं

हो गए रुख़्सत 'रईस' 'आली' 'वासिफ़' 'निसार'

रफ़्ता रफ़्ता आगरा 'सीमाब' सूना हो गया

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