बुढ़ापा पर शेर
बुढ़ापा उम्र का वह हिस्सा
है जब पुराने पत्ते नई कोंपलों को रास्ता देने की तैयारी शुरू कर देते हैं। माज़ी या अतीत के बहुत सारे पल अच्छे बुरे तजुर्बों की धूप-छाँव की तरह याद आते हैं और शायरी ऐसे ही जज़्बों की तर्जुमानी में करामात दिखाती है। उम्र के आख़िरी लम्हों में जिस्म और उस से जुड़ी दुनिया में सूरज के ढलने जैसा समाँ होता है जिसे शायरों ने अपने-अपने नज़रिये से देखा और महसूस किया है। पेश है एक झलक बुढ़ापा शायरी कीः
गुदाज़-ए-इश्क़ नहीं कम जो मैं जवाँ न रहा
वही है आग मगर आग में धुआँ न रहा
वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें
तलातुम आरज़ू में है न तूफ़ाँ जुस्तुजू में है
जवानी का गुज़र जाना है दरिया का उतर जाना
अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
रंग मौजों का बदल जाता है साहिल के क़रीब
ख़ामोश हो गईं जो उमंगें शबाब की
फिर जुरअत-ए-गुनाह न की हम भी चुप रहे
रुख़्सत हुआ शबाब तो अब आप आए हैं
अब आप ही बताइए सरकार क्या करें
पीरी में शौक़ हौसला-फ़रसा नहीं रहा
वो दिल नहीं रहा वो ज़माना नहीं रहा
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है
पीरी में वलवले वो कहाँ हैं शबाब के
इक धूप थी कि साथ गई आफ़्ताब के
कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला
दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन
उम्र भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है
मौत के साथ हुई है मिरी शादी सो 'ज़फ़र'
उम्र के आख़िरी लम्हात में दूल्हा हुआ मैं
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले किसी ज़माने में