मुनीर शिकोहाबादी के शेर
याद उस बुत की नमाज़ों में जो आई मुझ को
तपिश-ए-शौक़ से हर बार में बैठा उट्ठा
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हो गया हूँ मैं नक़ाब-ए-रू-ए-रौशन पर फ़क़ीर
चाहिए तह-बंद मुझ को चादर-ए-महताब का
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तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
जाम-ए-मय दस्त-ए-सुबू के वास्ते फोड़ा हुआ
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कलकत्ता में हर दम है 'मुनीर' आप को वहशत
हर कोठी में हर बंगले में जंगला नज़र आया
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गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
मिशअलें आप के साए से जला लेते हैं
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कुफ्र-ओ-इस्लाम में तौलें जो हक़ीक़त तेरी
बुत-कदा क्या कि हरम संग-ए-तराज़ू हो जाए
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आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ'-रू
परवाना चाहिए उन्हें परवाना चाहिए
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जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
फिरता नहीं वो तीर जो निकला कमान से
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गालियाँ ज़ख़्म-ए-कुहन को देख कर देती हो क्यूँ
बासी खाने में मिलाते हो तआ'म-ए-ताज़ा आज
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किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
आता नहीं है मशअ'ल-ए-मह का धुआँ पसंद
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बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
वा'दे क्यूँ टालते हो गिन गिन के
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पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
किस से मिला है शीशा-ए-दिल हम से फूट के
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मुंडेरों पर छिड़क दे अपने कुश्तों का लहू ऐ गुल
उगेगा सब्ज़ा-ए-शमसीर दीवार-ए-गुलिस्ताँ पर
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रोज़ दिल-हा-ए-मै-कशाँ टूटे
ऐ ख़ुदा जाम-ए-आसमाँ टूटे
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हाथ मिलवाते हो तरसाए गिलौरी के लिए
कफ़-ए-अफ़्सोस न मल जाए कहीं पाँव में
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सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
क़ाफ़िए आए जो पत्थर के मैं पानी समझा
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भटके फिरे दो अमला-ए-दैर-ओ-हरम में हम
इस सम्त कुफ़्र उस तरफ़ इस्लाम ले गया
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लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
आया अमल में इल्म-ए-निहानी पलंग पर
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क्या मज़ा पर्दा-ए-वहदत में है खुलता नहीं हाल
आप ख़ल्वत में ये फ़रमाइए क्या करते हैं
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ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
निय्यत अदा की है कि इशारे क़ज़ा के हैं
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कहते हैं सब देख कर बेताब मेरा उज़्व उज़्व
आदमी अब तक नहीं देखा कहीं सीमाब का
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हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
तख़लिया चाहा तो दुनिया साफ़ ख़ाली हो गई
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उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
की अहल-ए-सुख़न ने तिरी तारीफ़ बड़ी बात
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टैग : उस्ताद
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जब बढ़ गई उम्र घट गई ज़ीस्त
जो हद से ज़ियादा हो वो कम है
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ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना
मेहदी का चोर हाथ से जाए न छूट के
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ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
हुस्न है मुसहफ़ में होना नुक़्ता-ए-ए'राब का
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करता रहा लुग़ात की तहक़ीक़ उम्र भर
आमाल-नामा नुस्ख़ा-ए-फ़रहंग हो गया
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वहशत में बसर होते हैं अय्याम-ए-शबाब आह
ये शाम-ए-जवानी है कि साया है हिरन का
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किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
ले के तेशा ख़ाकसारी का बुत-ए-पिंदार तोड़
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मुँह तक भी ज़ोफ़ से नहीं आ सकती दिल की बात
दरवाज़ा घर से सैकड़ों फ़रसंग हो गया
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आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
होगी दस्त-ए-ग़ैब की सूरत हमारे हाथ में
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बरहमन का'बे में आया शैख़ पहूँचा दैर में
लोग बे-वहदत हुए हैं तेरी कसरत देख कर
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देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
हर बुत ख़ुदा है चाहने वालों के सामने
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कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
किस रोज़ मिरे क़त्ल का बीड़ा नहीं उठता
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की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
दैर-ओ-हरम में मुझ को तिरा नाम ले गया
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पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
आज जुगनू की तरह हर शरर-ए-संग उड़ा
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बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
है अहल-ए-इल्म को तिरा तर्ज़-ए-बयाँ पसंद
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जाम-ए-अक़ीक़ ज़र्द है नर्गिस के हाथ में
तक़्सीम कर रहा है मय-ए-अर्ग़वाँ बसंत
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बोसा होंटों का मिल गया किस को
दिल में कुछ आज दर्द मीठा है
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कलकत्ता में हर दम है 'मुनीर' आप को वहशत
हर कोठी में हर बंगले में जंगला नज़र आया
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तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
आज-कल बारिश-ए-शबनम है चमन से बाहर
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यारब हज़ार साल सलामत रहें हुज़ूर
हो रोज़ जश्न-ए-ईद यहाँ जावेदाँ बसंत
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का'बे से मुझ को लाई सवाद-ए-कुनिश्त में
इस्लाह दी बुतों ने ख़त-ए-सर-नविश्त में
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शैख़ ले है राह का'बे की बरहमन दैर की
इश्क़ का रस्ता जुदा है कुफ़्र और इस्लाम से
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सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
बिंत-उल-अनब से करने लगा शोख़ियाँ बसंत
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कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
ख़ुदा हैं कैसे कि पैग़ाम्बर नहीं रखते
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सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
ऐ परी बे-पर्दा हो कर सुब्हा-ए-ज़ुन्नार तोड़
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बे-तकल्लुफ़ आ गया वो मह दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न
रह गया पास-ए-अदब से क़ाफ़िया आदाब का
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अब के बहार-ए-हुस्न-ए-बुताँ है कमाल पर
नाक़ूस हो न जाए कफ़-ए-बरहमन में फूल
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करते हैं मस्जिदों में शिकवा-ए-मस्ताँ ज़ाहिद
या'नी आँखों का भवों से ये गिला करते हैं
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