शाद फ़िदाई देहलवी के शेर
मेरी हर शब इसी उम्मीद में कट जाती है
वो अभी आया अभी मेरा मुक़द्दर जागा
तड़प रहा है जो बेताब हो के ज़ख़्मों से
ये रास्ते में मिरे दिल के हू-बहू क्या है
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शाख़ पर हों कि उन के जूड़े में
उम्र है एक रात फूलों की
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जो नहीं है वक़्त का हम-सफ़र उसे सुब्ह-ओ-शाम की क्या ख़बर
हो किसी का वक़्त पे क्या असर भला वक़्त किस का ग़ुलाम है
तुझे भुला के भी सदियाँ भुला नहीं सकतीं
मगर ये शर्त है ख़ुद में कमाल पैदा कर
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अज़ीज़ो ज़िंदगी की तल्ख़ियों से मैं तो बाज़ आया
रफ़ीक़ो और जीने की दुआ से चोट लगती है
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जिन के आँगन में नहीं कोई भी रोने वाला
उन घरों से भी गुज़रता है खिलौने वाला
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हम अपनी हाजतों की ग़ुलामी में आ गए
ज़िंदाँ की बंदिशों से निकलना न आ सका
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