ताबाँ अब्दुल हई के शेर
किस किस तरह की दिल में गुज़रती हैं हसरतें
है वस्ल से ज़ियादा मज़ा इंतिज़ार का
कई फ़ाक़ों में ईद आई है
आज तू हो तो जान हम-आग़ोश
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टैग : ईद
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दर्द-ए-सर है ख़ुमार से मुझ को
जल्द ले कर शराब आ साक़ी
एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
ज़ुल्म ऐसा ही किया तू ने ऐ सय्याद कि बस
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मोहब्बत तू मत कर दिल उस बेवफ़ा से
दिल उस बेवफ़ा से मोहब्बत तू मत कर
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टैग : शब्दों की उलट-फेर
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जब तलक रहे जीता चाहिए हँसे बोले
आदमी को चुप रहना मौत की निशानी है
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तुम इस क़दर जो निडर हो के ज़ुल्म करते हो
बुताँ हमारा तुम्हारा कोई ख़ुदा भी है
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आतिश-ए-इश्क़ में जो जल न मरें
इश्क़ के फ़न में वो अनारी हैं
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महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल
बे-इख़्तियार शम्अ के आँसू ढलक पड़े
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टैग : आँसू
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हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
अगर इस दिल पे होता हाए कुछ भी इख़्तियार अपना
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ले मेरी ख़बर चश्म मिरे यार की क्यूँ-कर
बीमार अयादत करे बीमार की क्यूँ-कर
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टैग : अयादत
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देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'
क्या मिरे हिज्र में जीता है वो ग़मनाक हनूज़
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ख़्वान-ए-फ़लक पे नेमत-ए-अलवान है कहाँ
ख़ाली हैं महर-ओ-माह की दोनो रिकाबियाँ
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तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
आह क्या चाहना ऐसा ही बुरा होता है
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तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश
बला से तेरी मैं ना-ख़ुश हूँ या ख़ुश
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यार रूठा है मिरा उस को मनाऊँ किस तरह
मिन्नतें कर पाँव पड़ उस के ले आऊँ किस तरह
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बुरा न मानियो मैं पूछता हूँ ऐ ज़ालिम
कि बे-कसों के सताए से कुछ भला भी है
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मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर
तिरी सूरत मुझे आती है जब याद
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टैग : सूरत शायरी
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मुझ से बीमार है मिरा ज़ालिम
ये सितम किस तरह सहूँ 'ताबाँ'
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हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
ताइर को क़फ़स से भी कहीं हो है मोहब्बत
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मुझे आता है रोना ऐसी तन्हाई पे ऐ 'ताबाँ'
न यार अपना न दिल अपना न तन अपना न जाँ अपना
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आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ
कोई ग़म तो उस का दिल से हमारे जुदा नहीं
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दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
एक ही तेग़ लगा ऐसी ऐ जल्लाद कि बस
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कब पिलावेगा तू ऐ साक़ी मुझे जाम-ए-शराब
जाँ-ब-लब हूँ आरज़ू में मय की पैमाने की तरह
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टैग : शराब
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मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
रातों के तईं कर के फ़रियाद बहुत रोया
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कर क़त्ल मुझे उन ने आलम में बहुत ढूँडा
जब मुझ सा न कुइ पाया जल्लाद बहुत रोया
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करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
शायद कि उन के पर्दे में ज़ाहिद ख़ुदा भी हो
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इन बुतों को तो मिरे साथ मोहब्बत होती
काश बनता मैं बरहमन ही मुसलमाँ के एवज़
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ख़ुदा देवे अगर क़ुदरत मुझे तो ज़िद है ज़ाहिद की
जहाँ तक मस्जिदें हैं मैं बनाऊँ तोड़ बुत-ख़ाना
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है क्या सबब कि यार न आया ख़बर के तईं
शायद किसी ने हाल हमारा कहा नहीं
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ज़ाहिद हो और तक़्वा आबिद हो और मुसल्ला
माला हो और बरहमन सहबा हो और हम हों
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ज़ाहिद तिरा तो दीन सरासर फ़रेब है
रिश्ते से तेरे सुब्हा के ज़ुन्नार ही भला
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क़िस्मत में क्या है देखें जीते बचें कि मर जाएँ
क़ातिल से अब तो हम ने आँखें लड़ाइयाँ हैं
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वो तो सुनता नहीं किसी की बात
उस से मैं हाल क्या कहूँ 'ताबाँ'
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मैं तो तालिब दिल से हूँगा दीन का
दौलत-ए-दुनिया मुझे मतलूब नहीं
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आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
दर ओ दीवार तुझे देख के हैरान है आज
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जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
रौशनाई शम्अ की फीकी नज़र आती है सुब्ह
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न जा वाइज़ की बातों पर हमेशा मय को पी 'ताबाँ'
अबस डरता है तू दोज़ख़ से इक शरई दरक्का है
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सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर
वो सिखा देगा तुझे जान नमाज़-ए-माकूस
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रिंद वाइज़ से क्यूँ कि सरबर हो
उस की छू, की किताब और ही है
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आईना रू-ब-रू रख और अपनी छब दिखाना
क्या ख़ुद-पसंदियाँ हैं क्या ख़ुद-नुमाईयाँ हैं
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वे शख़्स जिन से फ़ख़्र जहाँ को था अब वे हाए
ऐसे गए कि उन का कहीं नाम ही नहीं
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दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
इतना नहीं जहाँ मैं कोई बे-ख़बर कि हम
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ईमान ओ दीं से 'ताबाँ' कुछ काम नहीं है हम को
साक़ी हो और मय हो दुनिया हो और हम हों
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हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
कि याँ हर एक को है मर्तबा ख़ुदाई का
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आता है मोहतसिब पए-ताज़ीर मय-कशो
पगड़ी को उस की फेंक दो दाढ़ी को लो उखाड़
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तू कौन है ऐ वाइज़ जो मुझ को डराता है
मैं की भी हैं तो की हैं अल्लाह की तक़्सीरें
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यार से अब के गर मिलूँ 'ताबाँ'
तो फिर उस से जुदा न हूँ 'ताबाँ'
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'ताबाँ' ज़ि-बस हवा-ए-जुनूँ सर में है मिरे
अब मैं हूँ और दश्त है ये सर है और पहाड़
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अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
हमें भी जानता है ख़ूब इक आलम मियाँ-साहिब
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