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नज़्म
उर्दू-ए-मुअ'ल्ला
हर ज़बाँ का लफ़्ज़ खप जाए ये वुसअ'त इस में है
हर लुग़त के जज़्ब कर लेने की ताक़त इस में है
सफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इस फ़िक्र-ए-रोज़गार में सब खप गया दिमाग़
अब शा'इरी को चाहिए इक दूसरा दिमाग़
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
है हम से भी हो सकता जो कुछ न किया होगा
मजनूँ से जफ़ा-कश ने फ़रहाद से सर-खप ने