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मीर तक़ी मीर

1723 - 1810 | दिल्ली, भारत

उर्दू के पहले बड़े शायर जिन्हें 'ख़ुदा-ए-सुख़न' (शायरी का ख़ुदा) कहा जाता है

उर्दू के पहले बड़े शायर जिन्हें 'ख़ुदा-ए-सुख़न' (शायरी का ख़ुदा) कहा जाता है

मीर तक़ी मीर की टॉप 20 शायरी

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या

आगे आगे देखिए होता है क्या

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

जाने जाने गुल ही जाने बाग़ तो सारा जाने है

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए

पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

व्याख्या

मीर अपनी सहल शायरी में कोई जोड़ नहीं रखते हैं। जिस सच्चाई और आसानी के साथ वो विषयों को बयान करने की क्षमता रखते हैं उसकी मिसाल मुश्किल ही से मिलती है।

इस शे’र में मीर ने बड़ी मासूमियत और सादगी के साथ अपने महबूब के हुस्न की तारीफ़ बयान की है। ज़ाहिर है कि हुस्न की तारीफ़ के बयान में महबूब के होंटों का बयान बहुत अहम वस्तु है। मीर अपने महबूब के होंटों की नाज़ुकी मुलाइमियत या नम्रता को बयान करते हुए उपमा देते हैं और वो उपमा गुलाब के फूल की पंखुड़ी से देते हैं। गुलाब की पंखुड़ी बहुत नाज़ुक होती हैं, बहुत नरम होती हैं, इतनी नरम और इतनी नाज़ुक होती हैं कि मीर को अपने महबूब के होंटों की बनावट बिल्कुल गुलाब की पंखुड़ी की तरह नज़र आती है। गुलाब की पंखुड़ियाँ बहुत ही उचित उपमा है, जो महबूब के होंटों के लिए दी जा सकती है और मीर ने इस मुनासिब तरीन उपमा का इस्तेमाल करके ये साबित कर दिया कि उपमा के चुनाव में भी उनका कोई बदल नहीं है।

आसान लफ़्ज़ों में कहा जाये तो बात साफ़ समझ में आती है कि मीर अपने महबूब के होंटों को गुलाब की पंखुड़ी की तरह महसूस करते हैं, उसकी नाज़ुकी की या उसकी नम्रता की वजह से और इस तरह इस उपमा ने महबूब के हुस्न का बेहतरीन नक़्शा खींच दिया है।

सुहैल आज़ाद

व्याख्या

मीर अपनी सहल शायरी में कोई जोड़ नहीं रखते हैं। जिस सच्चाई और आसानी के साथ वो विषयों को बयान करने की क्षमता रखते हैं उसकी मिसाल मुश्किल ही से मिलती है।

इस शे’र में मीर ने बड़ी मासूमियत और सादगी के साथ अपने महबूब के हुस्न की तारीफ़ बयान की है। ज़ाहिर है कि हुस्न की तारीफ़ के बयान में महबूब के होंटों का बयान बहुत अहम वस्तु है। मीर अपने महबूब के होंटों की नाज़ुकी मुलाइमियत या नम्रता को बयान करते हुए उपमा देते हैं और वो उपमा गुलाब के फूल की पंखुड़ी से देते हैं। गुलाब की पंखुड़ी बहुत नाज़ुक होती हैं, बहुत नरम होती हैं, इतनी नरम और इतनी नाज़ुक होती हैं कि मीर को अपने महबूब के होंटों की बनावट बिल्कुल गुलाब की पंखुड़ी की तरह नज़र आती है। गुलाब की पंखुड़ियाँ बहुत ही उचित उपमा है, जो महबूब के होंटों के लिए दी जा सकती है और मीर ने इस मुनासिब तरीन उपमा का इस्तेमाल करके ये साबित कर दिया कि उपमा के चुनाव में भी उनका कोई बदल नहीं है।

आसान लफ़्ज़ों में कहा जाये तो बात साफ़ समझ में आती है कि मीर अपने महबूब के होंटों को गुलाब की पंखुड़ी की तरह महसूस करते हैं, उसकी नाज़ुकी की या उसकी नम्रता की वजह से और इस तरह इस उपमा ने महबूब के हुस्न का बेहतरीन नक़्शा खींच दिया है।

सुहैल आज़ाद

आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम

अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये

अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'

फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया

याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़

नादान फिर वो जी से भुलाया जाएगा

इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है

कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है

होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर'

क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों

तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं

व्याख्या

ये मीर तक़ी मीर के मशहूर अशआर में से एक है। इस शे’र की बुनियाद ''मत सहल हमें जानो” पर है। सहल का मतलब आसान है और कम से कम भी। मगर इस शे’र में यह लफ़्ज़ कम से कम के मानी में इस्तेमाल हुआ है। फ़लक का मतलब आस्मान है और फ़लक के फिरने से तात्पर्य चक्कर काटने और मारा मारा फिरने के भी हैं। इस शे’र में फ़लक के फिरने से तात्पर्य मारा मारा फिरने के ही हैं। ख़ाक का मतलब ज़मीन, मिट्टी है और ख़ाक शब्द मीर ने इस लिए इस्तेमाल किया है कि इंसान ख़ाक (मिट्टी) से बना हुआ है यानी ख़ाकी कहा जाता है।

शे’र में ख़ास बात ये है कि शायर ने “फ़लक”, “ख़ाक” और “इंसान” जैसे शब्दों से बहुत कमाल का ख़्याल पेश किया है। शे’र के नज़दीक के मानी तो ये हुए कि इंसान हम जैसे लोगों को आसान मत समझो, हम जैसे लोग तब मिट्टी से पैदा होते हैं जब आस्मान बरसों तक भटकता है। लेकिन शायर अस्ल में ये कहना चाहता है कि हम जैसे कमाल के लोग रोज़ रोज़ पैदा नहीं होते बल्कि जब आस्मान बरसों मारा मारा फिरता है तब हम जैसे लोग पैदा होते हैं। इसलिए हमें कम या बहुत छोटा मत जानो। यानी जब आस्मान बरसों तक हम जैसे कमाल के लोगों को पैदा करने के लिए मारा मारा फिरता है तब कहीं जाकर हम मिट्टी के पर्दे से पैदा होते हैं।

इस शे’र में शब्द इंसान से दो मानी निकलते हैं, एक कमाल का, हुनरमंद और योग्य आदमी। दूसरा इंसानियत से भरपूर आदमी।

शफ़क़ सुपुरी

व्याख्या

ये मीर तक़ी मीर के मशहूर अशआर में से एक है। इस शे’र की बुनियाद ''मत सहल हमें जानो” पर है। सहल का मतलब आसान है और कम से कम भी। मगर इस शे’र में यह लफ़्ज़ कम से कम के मानी में इस्तेमाल हुआ है। फ़लक का मतलब आस्मान है और फ़लक के फिरने से तात्पर्य चक्कर काटने और मारा मारा फिरने के भी हैं। इस शे’र में फ़लक के फिरने से तात्पर्य मारा मारा फिरने के ही हैं। ख़ाक का मतलब ज़मीन, मिट्टी है और ख़ाक शब्द मीर ने इस लिए इस्तेमाल किया है कि इंसान ख़ाक (मिट्टी) से बना हुआ है यानी ख़ाकी कहा जाता है।

शे’र में ख़ास बात ये है कि शायर ने “फ़लक”, “ख़ाक” और “इंसान” जैसे शब्दों से बहुत कमाल का ख़्याल पेश किया है। शे’र के नज़दीक के मानी तो ये हुए कि इंसान हम जैसे लोगों को आसान मत समझो, हम जैसे लोग तब मिट्टी से पैदा होते हैं जब आस्मान बरसों तक भटकता है। लेकिन शायर अस्ल में ये कहना चाहता है कि हम जैसे कमाल के लोग रोज़ रोज़ पैदा नहीं होते बल्कि जब आस्मान बरसों मारा मारा फिरता है तब हम जैसे लोग पैदा होते हैं। इसलिए हमें कम या बहुत छोटा मत जानो। यानी जब आस्मान बरसों तक हम जैसे कमाल के लोगों को पैदा करने के लिए मारा मारा फिरता है तब कहीं जाकर हम मिट्टी के पर्दे से पैदा होते हैं।

इस शे’र में शब्द इंसान से दो मानी निकलते हैं, एक कमाल का, हुनरमंद और योग्य आदमी। दूसरा इंसानियत से भरपूर आदमी।

शफ़क़ सुपुरी

हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया

दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया

दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया

हमें आप से भी जुदा कर चले

सिरहाने 'मीर' के कोई बोलो

अभी टुक रोते रोते सो गया है

व्याख्या

मीर के इस शे’र में कमाल की नाटकीय स्थिति पाई जाती है। इस नाटकीय स्थिति में कम से कम तीन पात्रों की कल्पना की जा सकती है। यदि यह मान लिया जाए कि काव्य पात्र कई लोगों से संबोधित हैं तो पात्रों का निर्धारण करना मुश्किल है। अर्थात ये कहना कि कितने लोग मीर की मिज़ाजपुर्सी के लिए आए हैं, स्पष्ट नहीं होता। इस शे’र में शब्द “टुक” (अर्थात ज़रा सा)को बीज स्थिति प्राप्त है क्योंकि इसी से शे’र में प्रभाव पैदा किया गया है। “रोते-रोते” से जो निरंतर रोने की स्थिति पैदा की गई है वो भी कम दिलचस्प नहीं है।

शे’र एक दृश्य की स्थिति को बयान करता है। सम्बोधित का लहजा चेतावनीपूर्ण भी हो सकता है और आग्रहपूर्ण भी। दूसरी स्थिति ये बनती है कि सम्बोधन केवल उन लोगों से है जो मीर के सिरहाने बैठ कर या तो गुफ़्तगू करते हैं या फिर मीर की तबीयत का हाल सम्बोधित से पूछ रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है कि जो लोग मिज़ाजपुर्सी सिरहाने बैठ कर करते हैं वो बीमार के ज़्यादा क़रीबी होते हैं। बहरहाल सम्बोधित का मीर के सिरहाने बैठ कर गुफ़्तगू करने वालों से कहना कि मीर के सिरहाने कोई बोलो से ये भी स्पष्ट होता है कि मीर ज़रा सी आवाज़ से भी जाग सकते हैं। “अभी टुक रोते-रोते सो गया है” में कमाल की नाटकीयता है। अर्थात सम्बोधित गवाह है कि मीर ने बहुत देर तक रोया है, अब थक-हार के अभी ज़रा सा सो गए हैं। ज़रा सा जब कहा तो मानो मीर अभी उठकर फिर से रोना शुरू करेंगे।

शफ़क़ सुपुरी

व्याख्या

मीर के इस शे’र में कमाल की नाटकीय स्थिति पाई जाती है। इस नाटकीय स्थिति में कम से कम तीन पात्रों की कल्पना की जा सकती है। यदि यह मान लिया जाए कि काव्य पात्र कई लोगों से संबोधित हैं तो पात्रों का निर्धारण करना मुश्किल है। अर्थात ये कहना कि कितने लोग मीर की मिज़ाजपुर्सी के लिए आए हैं, स्पष्ट नहीं होता। इस शे’र में शब्द “टुक” (अर्थात ज़रा सा)को बीज स्थिति प्राप्त है क्योंकि इसी से शे’र में प्रभाव पैदा किया गया है। “रोते-रोते” से जो निरंतर रोने की स्थिति पैदा की गई है वो भी कम दिलचस्प नहीं है।

शे’र एक दृश्य की स्थिति को बयान करता है। सम्बोधित का लहजा चेतावनीपूर्ण भी हो सकता है और आग्रहपूर्ण भी। दूसरी स्थिति ये बनती है कि सम्बोधन केवल उन लोगों से है जो मीर के सिरहाने बैठ कर या तो गुफ़्तगू करते हैं या फिर मीर की तबीयत का हाल सम्बोधित से पूछ रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है कि जो लोग मिज़ाजपुर्सी सिरहाने बैठ कर करते हैं वो बीमार के ज़्यादा क़रीबी होते हैं। बहरहाल सम्बोधित का मीर के सिरहाने बैठ कर गुफ़्तगू करने वालों से कहना कि मीर के सिरहाने कोई बोलो से ये भी स्पष्ट होता है कि मीर ज़रा सी आवाज़ से भी जाग सकते हैं। “अभी टुक रोते-रोते सो गया है” में कमाल की नाटकीयता है। अर्थात सम्बोधित गवाह है कि मीर ने बहुत देर तक रोया है, अब थक-हार के अभी ज़रा सा सो गए हैं। ज़रा सा जब कहा तो मानो मीर अभी उठकर फिर से रोना शुरू करेंगे।

शफ़क़ सुपुरी

मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में

तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया

ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम

आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो

क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया

'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे

इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो

उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर

शम-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का

चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर

मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच

किन नींदों अब तू सोती है चश्म-ए-गिर्या-नाक

मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया

जम गया ख़ूँ कफ़-ए-क़ातिल पे तिरा 'मीर' ज़ि-बस

उन ने रो रो दिया कल हाथ को धोते धोते

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