मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी के शेर
अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तिरी अंगड़ाई का
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पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
रोना ख़ुद अपने हाल पे ये ज़ार ज़ार क्या
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ज़बान दिल की हक़ीक़त को क्या बयाँ करती
किसी का हाल किसी से कहा नहीं जाता
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ख़ुद चले आओ या बुला भेजो
रात अकेले बसर नहीं होती
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लुत्फ़-ए-बहार कुछ नहीं गो है वही बहार
दिल ही उजड़ गया कि ज़माना उजड़ गया
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झूटे वादों पर थी अपनी ज़िंदगी
अब तो वो भी आसरा जाता रहा
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हिज्र की रात काटने वाले
क्या करेगा अगर सहर न हुई
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हमेशा तिनके ही चुनते गुज़र गई अपनी
मगर चमन में कहीं आशियाँ बना न सके
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आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
दिल-ए-मुज़्तर ने मिरे उन को सँवरने न दिया
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बताओ ऐसे मरीज़ों का है इलाज कोई
कि जिन से हाल भी अपना बयाँ नहीं होता
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तुम ने छेड़ा तो कुछ खुले हम भी
बात पर बात याद आती है
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ये तेरी आरज़ू में बढ़ी वुसअत-ए-नज़र
दुनिया है सब मिरी निगह-ए-इंतिज़ार में
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वही हिकायत-ए-दिल थी वही शिकायत-ए-दिल
थी एक बात जहाँ से भी इब्तिदा करते
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हाए क्या चीज़ थी जवानी भी
अब तो दिन रात याद आती है
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माना कि बज़्म-ए-हुस्न के आदाब हैं बहुत
जब दिल पे इख़्तियार न हो क्या करे कोई
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शम्अ' बुझ कर रह गई परवाना जल कर रह गया
यादगार-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ इक दाग़ दिल पर रह गया
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इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
टूटी वो शाख़ जिस पे मिरा आशियाना था
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टैग : क़िस्मत
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'अज़ीज़' मुँह से वो अपने नक़ाब तो उलटें
करेंगे जब्र अगर दिल पे इख़्तियार रहा
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दुआएँ माँगी हैं साक़ी ने खोल कर ज़ुल्फ़ें
बसान-ए-दस्त-ए-करम अब्र-ए-दजला-बार बरस
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कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
अजब अंदाज़ से ता'मीर हुआ ख़ाना-ए-दिल
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तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
मुझे रोने की आदत हो गई है
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दिल नहीं जब तो ख़ाक है दुनिया
असल जो चीज़ थी वही न रही
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नज़्अ' का वक़्त है बैठा है सिरहाने कोई
वक़्त अब वो है कि मरना हमें मंज़ूर नहीं
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दिल समझता था कि ख़ल्वत में वो तन्हा होंगे
मैं ने पर्दा जो उठाया तो क़यामत निकली
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बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है
देखिए कौन मुझे मेरी ख़बर देता है
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टैग : बेख़ुदी
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उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
कहाँ तक फूल बरसाए कोई गोर-ए-ग़रीबाँ पर
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मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
ये माना हम जिए लेकिन जिए क्यूँ
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है दिल में जोश-ए-हसरत रुकते नहीं हैं आँसू
रिसती हुई सुराही टूटा हुआ सुबू हूँ
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जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
दिल मिरा टूटा हुआ आईना है
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तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
लिए हुए कोई यूँ साग़र-ए-शराब आया
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हम तो दिल ही पर समझते थे बुतों का इख़्तियार
नस्ब-ए-का'बा में भी अब तक एक पत्थर रह गया
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बे-पिए वाइ'ज़ को मेरी राय में
मस्जिद-ए-जामा में जाना ही न था
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आप जिस दिल से गुरेज़ाँ थे उसी दिल से मिले
देखिए ढूँढ निकाला है कहाँ से मैं ने
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उसी को हश्र कहते हैं जहाँ दुनिया हो फ़रियादी
यही ऐ मीर-ए-दीवान-ए-जज़ा क्या तेरी महफ़िल है
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क़त्ल और मुझ से सख़्त-जाँ का क़त्ल
तेग़ देखो ज़रा कमर देखो
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अब चमन में भी किसी सूरत से जी लगता नहीं
हाँ मगर जब तक क़फ़स में थे क़फ़स बदनाम था
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हमेशा से मिज़ाज-ए-हुस्न में दिक़्क़त-पसंदी है
मिरी दुश्वारियाँ आसान होना सख़्त मुश्किल है
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मिरे दहन में अगर आप की ज़बाँ होती
तो फिर कुछ और ही उन्वान-ए-दास्ताँ होता
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मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह
पाक-दामानी का दा'वा हो तो किस बुनियाद पर
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फूट निकला ज़हर सारे जिस्म में
जब कभी आँसू हमारे थम गए
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बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
ख़ुमार-आलूदा आँखें रात-भर की
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टैग : आशोब
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दिल की आलूदगी-ए-ज़ख़्म बढ़ी जाती है
साँस लेता हूँ तो अब ख़ून की बू आती है
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क़फ़स में जी नहीं लगता है आह फिर भी मिरा
ये जानता हूँ कि तिनका भी आशियाँ में नहीं
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तक़लीद अब मैं हज़रत-ए-वाइज़ की क्यूँ करूँ
साक़ी ने दे दिया मुझे फ़तवा जवाज़ का
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मंज़िल-ए-हस्ती में इक यूसुफ़ की थी मुझ को तलाश
अब जो देखा कारवाँ का कारवाँ मिलता नहीं
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ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
कि अब मरीज़ को अच्छा था क़िबला-रू करते
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सबक़ आ के गोर-ए-ग़रीबाँ से ले लो
ख़मोशी मुदर्रिस है इस अंजुमन में
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तिरी कोशिश हम ऐ दिल सई-ए-ला-हासिल समझते हैं
सर-ए-मंज़िल तुझे बेगाना-ए-मंज़िल समझते हैं
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हुस्न-ए-आरास्ता क़ुदरत का अतिय्या है मगर
क्या मिरा इशक़-ए-जिगर-सोज़ ख़ुदा-दाद नहीं
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हादसात-ए-दहर में वाबस्ता-ए-अर्बाब-ए-दर्द
ली जहाँ करवट किसी ने इंक़लाब आ ही गया
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