याद-ए-माज़ी 'अज़ाब है या-रब
छीन ले मुझ से हाफ़िज़ा मेरा
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आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
इस के ब'अद आए जो अज़ाब आए
अज़ाब होती हैं अक्सर शबाब की घड़ियाँ
गुलाब अपनी ही ख़ुश्बू से डरने लगते हैं
उन्ही पे हो कभी नाज़िल अज़ाब आग अजल
वही नगर कभी ठहरें पयम्बरों वाले
रह-ए-हयात में काँटों ने मेहरबाँ हो कर
बचा लिया है अज़ाब-ए-शगुफ़्तगी से मुझे
छपी थी जिस की ग़ज़ल में ज़माने भर की ख़ुशी
ख़ुद उस की ज़ीस्त का नग़्मा अज़ाब सा उभरा