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इफ़्तिख़ार आरिफ़

1943 | इस्लामाबाद, पाकिस्तान

पाकिस्तान में अग्रणी शायरों में शामिल, अपनी सांस्कृतिक रूमानियत के लिए मशहूर।

पाकिस्तान में अग्रणी शायरों में शामिल, अपनी सांस्कृतिक रूमानियत के लिए मशहूर।

इफ़्तिख़ार आरिफ़ के शेर

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मिरा ख़ुश-ख़िराम बला का तेज़-ख़िराम था

मिरी ज़िंदगी से चला गया तो ख़बर हुई

मिट्टी की गवाही से बड़ी दिल की गवाही

यूँ हो तो ये ज़ंजीर ये ज़िंदाँ भी मिरा है

दुनिया बदल रही है ज़माने के साथ साथ

अब रोज़ रोज़ देखने वाला कहाँ से लाएँ

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है

ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है

सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन

रातों रात चला जाए जिस को जाना है

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ

कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए

जो डूबती जाती है वो कश्ती भी है मेरी

जो टूटता जाता है वो पैमाँ भी मिरा है

मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे

मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे

करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला

सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल

ऐसा लगता है गिरह अब के बरस टूटती है

सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर

किस एहतिमाम से परवर-दिगार-ए-शब निकला

समुंदर के किनारे एक बस्ती रो रही है

मैं इतनी दूर हूँ और मुझ को वहशत हो रही है

ये तेरे मेरे चराग़ों की ज़िद जहाँ से चली

वहीं कहीं से इलाक़ा हवा का लगता है

मंसब कुलाह चाहता हूँ

तन्हा हूँ गवाह चाहता हूँ

यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था

अब इसी लहजा-ए-बे-बाक से ख़ौफ़ आता है

सब लोग अपने अपने क़बीलों के साथ थे

इक मैं ही था कि कोई भी लश्कर मिरा था

उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं

ज़रा सी देर को दुनिया से कट के देखते हैं

वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार

जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं

दिल उन के साथ मगर तेग़ और शख़्स के साथ

ये सिलसिला भी कुछ अहल-ए-रिया का लगता है

मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया

मिट्टी बता रही है वो पैकर मिरा था

अजब तरह का है मौसम कि ख़ाक उड़ती है

वो दिन भी थे कि खिले थे गुलाब आँखों में

दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो

कोई तो हो जो मिरी वहशतों का साथी हो

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत

जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे

बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत

वफ़ा पर इश्क़ की बुनियाद रखना चाहते हैं

वही चराग़ बुझा जिस की लौ क़यामत थी

उसी पे ज़र्ब पड़ी जो शजर पुराना था

ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है

अपनी मिट्टी से बिछड़ने की सज़ा मिलती है

खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख

हम अहल-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत हैं दिल निकाल के रख

इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया

इस बार तो हम शह के मुसाहिब भी नहीं थे

कहानी में नए किरदार शामिल हो गए हैं

नहीं मा'लूम अब किस ढब तमाशा ख़त्म होगा

ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है

यहाँ वा'दों की अर्ज़ानी बहुत है

अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़

बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया

ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ

दुआ के दिन हैं मुसलसल दुआ किए जाएँ

वफ़ा के बाब में कार-ए-सुख़न तमाम हुआ

मिरी ज़मीन पे इक मअरका लहू का भी हो

मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने

वो क़र्ज़ उतारे हैं कि वाजिब भी नहीं थे

हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में

एक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब

ज़मीं बुलंद हुई आसमाँ के होते हुए

वो मेरे नाम की निस्बत से मो'तबर ठहरे

गली गली मिरी रुस्वाइयों का साथी हो

जवाब आए आए सवाल उठा तो सही

फिर इस सवाल में पहलू नए सवाल के रख

दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में

सो ज़ख़्म खाते रहे और दुआ दिए गए हम

हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

दिलों को दर्द से आबाद रखना चाहते हैं

पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं

हम ऐसे कौन ख़ुदा थे कि अपने घर रहते

कहाँ के नाम नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या

जहान-ए-रिज़्क़ में तौक़ीर-ए-अहल-ए-हाजत क्या

वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ

सो अब फिर इक सफ़र का सिलसिला करना पड़ेगा

डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक बताए

ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ

शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

यही लौ थी कि उलझती रही हर रात के साथ

अब के ख़ुद अपनी हवाओं में बुझा चाहती है

शिकम की आग लिए फिर रही है शहर-ब-शहर

सग-ए-ज़माना हैं हम क्या हमारी हिजरत क्या

शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं

मगर लहजों में वीरानी बहुत है

ग़म-ए-जहाँ को शर्मसार करने वाले क्या हुए

वो सारी उम्र इंतिज़ार करने वाले क्या हुए

खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है

अजब कमाल है उस बेवफ़ा के लहजे में

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