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निदा फ़ाज़ली

1938 - 2016 | मुंबई, भारत

महत्वपूर्ण आधुनिक शायर और फ़िल्म गीतकार। अपनी ग़ज़ल ' कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ' के लिए प्रसिद्ध

महत्वपूर्ण आधुनिक शायर और फ़िल्म गीतकार। अपनी ग़ज़ल ' कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ' के लिए प्रसिद्ध

निदा फ़ाज़ली के शेर

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ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते

नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या

दुनिया जीत पाओ तो हारो आप को

थोड़ी बहुत तो ज़ेहन में नाराज़गी रहे

दुश्मनी लाख सही ख़त्म कीजे रिश्ता

दिल मिले या मिले हाथ मिलाते रहिए

मिरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है

मुझे सँभाल के रखना बिखर जाऊँ में

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है

जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिए

होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है

इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई

जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला

ख़तरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन

सैलाब किनारों पे मचलने तो लगे हैं

अपने लहजे की हिफ़ाज़त कीजिए

शेर हो जाते हैं ना-मालूम भी

तुम से छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान था

तुम को ही याद किया तुम को भुलाने के लिए

वही हमेशा का आलम है क्या किया जाए

जहाँ से देखिए कुछ कम है क्या किया जाए

हम लबों से कह पाए उन से हाल-ए-दिल कभी

और वो समझे नहीं ये ख़ामुशी क्या चीज़ है

मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें

कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें

बदला अपने-आप को जो थे वही रहे

मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

हमारा 'मीर'-जी से मुत्तफ़िक़ होना है ना-मुम्किन

उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का भारी क्या

ख़ुश-हाल घर शरीफ़ तबीअत सभी का दोस्त

वो शख़्स था ज़ियादा मगर आदमी था कम

रिश्तों का ए'तिबार वफ़ाओं का इंतिज़ार

हम भी चराग़ ले के हवाओं में आए हैं

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं

तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता

मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें

इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ

याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ

बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी

सलीक़ा चाहिए आवारगी में

मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम दे

वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी

कुछ तबीअ'त ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत हुई

जिस को चाहा उसे अपना सके जो मिला उस से मोहब्बत हुई

दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही

दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी

रात जंगल में कोई शम्अ जलाने से रही

कुछ भी बचा कहने को हर बात हो गई

आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए

इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई

सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा

खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है

अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

हम भी किसी कमान से निकले थे तीर से

ये और बात है कि निशाने ख़ता हुए

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा

मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा

किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से

हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं

जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं

हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी

गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को

बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख

मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं

फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है रोना है

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है

मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने

किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे

बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शाइ'री

झुकती आँखों ने बताया मय-कशी क्या चीज़ है

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं

किसी तितली को फूलों से उड़ाया जाए

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिस को भी देखना हो कई बार देखना

मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं

वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है

ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

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