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शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

1699 - 1783 | दिल्ली, भारत

मुमत़ाज़ तरीन क्लासीकी शाइरों में शुमार, उर्दू के पहले इस्लाह-ए-ज़बान के अलमबरदार, शाइरी में ईहाम-गोई का रंग

मुमत़ाज़ तरीन क्लासीकी शाइरों में शुमार, उर्दू के पहले इस्लाह-ए-ज़बान के अलमबरदार, शाइरी में ईहाम-गोई का रंग

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम के शेर

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कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी

हुआ क्या जान को मेरी अभी तो थी भली-चंगी

जवाब-ए-नामा या देता नहीं या क़ैद करता है

जो भेजा हम ने क़ासिद फिर पाई कुछ ख़बर उस की

दिल था बग़ल में मुद्दई ख़ूब हुआ जो ग़म हुआ

जाने से उस की इन दिनों हम को बड़ा फ़राग़ है

चला जा मोहतसिब मस्जिद में 'हातिम' से बहसा कर

कि ताअत उस के मशरब में सुराही और प्याला है

ये किस मज़हब में और मशरब में है हिन्दू मुसलमानो

ख़ुदा को छोड़ दिल में उल्फ़त-ए-दैर-ओ-हरम रखना

कोई बतलाता नहीं आलम में उस के घर की राह

मारता फिरता हूँ अपने सर को दीवारों से आज

ख़ाक कर देवे जला कर पहले फिर टिसवे बहाए

शम्अ मज्लिस में बड़ी दिल-सोज़ परवाने की है

साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग

गोर में सर के तले तकिया की जागा एक ख़िश्त

दिल-ए-नाज़ुक मिरा हाथों में सँभाले रखियो

कहे देता हूँ ये संग-दिलाँ है शीशा

तू जो मूसा हो तो उस का हर तरफ़ दीदार है

सब अयाँ है क्या तजल्ली को यहाँ तकरार है

हैराँ हैं अपने अपने जो देखा सो काम में

क्या नाख़ुदा-शनास यहाँ क्या ख़ुदा-शनास

कहाँ है दिल जो कहूँ होवे के दीवाना

कि उस की ज़ुल्फ़ की ख़ाली है इस घड़ी ज़ंजीर

आई ईद दिल में नहीं कुछ हवा-ए-ईद

काश मेरे पास तू आता बजाए ईद

ब-तंग आया हूँ इस जाहिल के हाथों इस क़दर 'हातिम'

कि पानी में किताबों के डुबोने की नहीं फ़ुर्सत

कब ये दिल दिमाग़ है मिन्नत-ए-शम्अ खींचिए

ख़ाना-ए-दिल-जलों के बीच दाग़-ए-जिगर चराग़ है

रिआयत बूझ तू माशूक़ का जौर

कि तुझ को इश्क़ में कामिल करे है

बाज़ार से आए हाथ ख़ाली

कीसे में दाम कुछ निकला

रात उस की महफ़िल में सर से जल के पाँव तक

शम्अ की पिघल चर्बी उस्तुखाँ निकल आई

हुस्न आईना फ़ाश करता है

ऐसे दुश्मन को संगसार करो

तन्हाई से आती नहीं दिन रात मुझे नींद

या-रब मिरा हम-ख़्वाब हम-आग़ोश कहाँ है

जी उठूँ फिर कर अगर तू एक बोसा दे मुझे

चूसना लब का तिरे है मुझ को जूँ आब-ए-हयात

दौरा है जब से बज़्म में तेरी शराब का

बाज़ार गर्म है मिरे दिल के कबाब का

छुपाता क्या है मुँह कब तक छुपेगा

तुझे सब शहर-ए-क़ातिल जानता है

तुम्हारी देख सज तंग-पोशो

हुए ढीले मिरे कपड़े बदन के

दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम

लबाँ हैं पिस्ता ज़नख़ सेब चश्म हैं बादाम

एक बोसा माँगता है तुम से 'हातिम' सा गदा

जानियो राह-ए-ख़ुदा में ये भी इक ख़ैरात की

साफ़ दिल है तो कुदूरत छोड़

मिल हर इक रंग बीच आब की तरह

बैत-बहसी कर फ़ाख़्ता गुलशन में कि आज

मिसरा-ए-सर्व से मौज़ूँ है मिरा मिसरा-ए-आह

इश्क़-बाज़ी बुल-हवस बाज़ी जान

इश्क़ है ये ख़ाना-ए-ख़ाला नहीं

कहें हम बहर-ए-बे-पायान-ए-ग़म की माहियत किस से

लहरों से कोई वाक़िफ़ कोई थाह जाने है

होली के अब बहाने छिड़का है रंग किस ने

नाम-ए-ख़ुदा तुझ ऊपर इस आन अजब समाँ है

दिल देखते ही उस को गिरफ़्तार हो गया

रुस्वा-ए-शहर-ओ-कूचा-ओ-बाज़ार हो गया

ज़ुल्फ़ों की नागनी तो तिरी हम ने केलियाँ

पर अबरुवाँ से बस नहीं चलता कि हैं पंकीत

जामा उर्यानी का क़ामत पर मिरी आया है रास्त

अब मुझे नाम-ए-लिबास-ए-आरियत से नंग है

तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम

जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी

जिस तरफ़ को मैं गया रोता हुआ

ता-फ़लक रू-ए-ज़मीं दरिया हुआ

मशरब में तो दुरुस्त ख़राबातियों के है

मज़हब में ज़ाहिदों के नहीं गर रवा शराब

छल-बल उस की निगाह का मत पूछ

सेहर है टोटका है टोना है

मुझे तावीज़ लिख दो ख़ून-ए-आहू से कि स्यानो

तग़ाफ़ुल टोटका है और जादू है नज़र उस की

अदल से कर सल्तनत दिल तू तन के मुल्क में

वक़्त-ए-फ़ुर्सत बूझ ले ये हुक्मरानी फिर कहाँ

मुद्दत से आरज़ू है ख़ुदा वो घड़ी करे

हम तुम पिएँ जो मिल के कहीं एक जा शराब

मैं जितना ढूँढता हूँ उस को उतना ही नहीं पाता

किधर है किस तरफ़ है और कहाँ है दिल ख़ुदा जाने

ताबे रज़ा का उस की अज़ल सीं किया मुझे

चलता नहीं है ज़ोर किसूँ का क़ज़ा के हाथ

चाँद से तुझ को जो दे निस्बत सो बे-इंसाफ़ है

चाँद के मुँह पर हैं छाईं तेरा मुखड़ा साफ़ है

जब तक कि गरेबान में यक तार रहेगा

तब तक मिरी गर्दन के उपर बार रहेगा

तुम तो बैठे हुए पुर-आफ़त हो

उठ खड़े हो तो क्या क़यामत हो

दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया

सुलझेगा किस तरह से ये बिस्तार है ग़ज़ब

कभू तू रो तो उस को ख़ाक ऊपर जा के लैला

कि बिन पानी जंगल में रूह मजनूँ की भटकती है

ऐसा करूँगा अब के गरेबाँ को तार तार

जो फिर किसी तरह से किसी से रफ़ू हो

बुल-हवस गो करें तेरे लब-ए-शीरीं पर हुजूम

तल्ख़ मत हो कि मिठाई से मगस आती है

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