तौबा पर शेर
तौबा, उर्दू की मधुशाला
शायरी की मूल शब्दावली है । तौबा को विषय बनाते हुए उर्दू शायरी ने अपने विषय-वस्तु को ख़ूब विस्तार दिया है । ख़ास बात ये है कि पश्चाताप का विषय उर्दू शायरी में शोख़ी और शरारत के पहलू को सामने लाता है । मदिरा पान करने वाला पात्र अपने उपदेशक के कहने पर शराब से तौबा तो करता है लेकिन कभी मौसम की ख़ुशगवारी और कभी शराब की प्रबल इच्छा की वजह से ये तौबा टूट जाती है । यहाँ प्रस्तुत चुनिंदा शायरी में आप उपदेशक और शराब पीने वाले की शोख़ी और छेड़-छाड़ का आनंद लीजिए ।
हाए 'सीमाब' उस की मजबूरी
जिस ने की हो शबाब में तौबा
पीने से कर चुका था मैं तौबा मगर 'जलील'
बादल का रंग देख के नीयत बदल गई
हम से मय-कश जो तौबा कर बैठें
फिर ये कार-ए-सवाब कौन करे
हमारी कश्ती-ए-तौबा का ये हुआ अंजाम
बहार आते ही ग़र्क़-ए-शराब हो के रही
मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
कोई ज़ोहरा-जबीं पीने पे जब मजबूर करता है
आप के होते किसी और को चाहूँ तौबा
किस तरफ़ ध्यान है क्या आप ये फ़रमाते हैं
साक़िया दिल में जो तौबा का ख़याल आता है
दूर से आँख दिखाता है तिरा जाम मुझे
इतनी पी है कि ब'अद-ए-तौबा भी
बे-पिए बे-ख़ुदी सी रहती है
बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी
ऐ शैख़ मरते मरते बचे हैं पिए बग़ैर
आसी हों अब जो तौबा करें मय-कशी से हम
बात साक़ी की न टाली जाएगी
कर के तौबा तोड़ डाली जाएगी
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तौबा खड़ी है दर पे जो फ़रियाद के लिए
ये मय-कदा भी क्या किसी क़ाज़ी का घर हुआ
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
अरे तौबा बड़ी तौबा-शिकन आवाज़ होती है
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गई फ़ुर्सत
हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है
शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की
तौबा के साथ तोड़िए बोतल शराब की
तौबा की रिंदों में गुंजाइश कहाँ
जब ये आएगी निकाली जाएगी
फ़तवा दिया है मुफ़्ती-ए-अब्र-ए-बहार ने
तौबा का ख़ून बादा-कशों को हलाल है
दुख़्तर-ए-रज़ ने दिए छींटे कुछ ऐसे साक़िया
पानी पानी हो गई तौबा हर इक मय-ख़्वार की
हम ने बरसात के मौसम में जो चाही तौबा
अब्र इस ज़ोर से गरजा कि इलाही तौबा
उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा
मैं ने शबनम को भी शोलों पे मचलते देखा
तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
शिकस्त-ए-तौबा की तम्हीद है तिरी तौबा
ज़बाँ पे तौबा 'मुबारक' निगाह साग़र पर
मिरी शराब की तौबा पे जा न ऐ वाइज़
नशे की बात नहीं ए'तिबार के क़ाबिल
मैं तो जब मानूँ मिरी तौबा के बाद
कर के मजबूर पिला दे साक़ी
जाम है तौबा-शिकन तौबा मिरी जाम-शिकन
सामने ढेर हैं टूटे हुए पैमानों के
गुज़रे हैं मय-कदे से जो तौबा के ब'अद हम
कुछ दूर आदतन भी क़दम डगमगाए हैं