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लाला माधव राम जौहर

1810 - 1889

हर मौक़े पर याद आने वाले कई शेर देने वाले विख्यात शायर , मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन।

हर मौक़े पर याद आने वाले कई शेर देने वाले विख्यात शायर , मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन।

लाला माधव राम जौहर के शेर

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भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया

ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं

ग़ैरों से तो फ़ुर्सत तुम्हें दिन रात नहीं है

हाँ मेरे लिए वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं है

तुझ सा कोई जहान में नाज़ुक-बदन कहाँ

ये पंखुड़ी से होंट ये गुल सा बदन कहाँ

लड़ने को दिल जो चाहे तो आँखें लड़ाइए

हो जंग भी अगर तो मज़ेदार जंग हो

नाला-ए-बुलबुल-ए-शैदा तो सुना हँस हँस कर

अब जिगर थाम के बैठो मिरी बारी आई

दोस्त तुझ को रहम आए तो क्या करूँ

दुश्मन भी मेरे हाल पे अब आब-दीदा है

समझा लिया फ़रेब से मुझ को तो आप ने

दिल से तो पूछ लीजिए क्यूँ बे-क़रार है

जो दोस्त हैं वो माँगते हैं सुल्ह की दुआ

दुश्मन ये चाहते हैं कि आपस में जंग हो

वही शागिर्द फिर हो जाते हैं उस्ताद 'जौहर'

जो अपने जान-ओ-दिल से ख़िदमत-ए-उस्ताद करते हैं

ख़ूब-रू हैं सैकड़ों लेकिन नहीं तेरा जवाब

दिलरुबाई में अदा में नाज़ में अंदाज़ में

हम इश्क़ में हैं फ़र्द तो तुम हुस्न में यकता

हम सा भी नहीं एक जो तुम सा नहीं कोई

वो सूरत दिखाते हैं मिलते हैं गले कर

आँखें शाद होतीं हैं दिल मसरूर होता है

दोस्त दो-चार निकलते हैं कहीं लाखों में

जितने होते हैं सिवा उतने ही कम होते हैं

ज़र्रा समझ के यूँ मिला मुझ को ख़ाक में

आसमान मैं भी कभी आफ़्ताब था

दुनिया बहुत ख़राब है जा-ए-गुज़र नहीं

बिस्तर उठाओ रहने के क़ाबिल ये घर नहीं

अरमान वस्ल का मिरी नज़रों से ताड़ के

पहले ही से वो बैठ गए मुँह बिगाड़ के

तसव्वुर ज़ुल्फ़ का है और मैं हूँ

बला का सामना है और मैं हूँ

दोस्त दिल रखने को करते हैं बहाने क्या क्या

रोज़ झूटी ख़बर-ए-वस्ल सुना जाते हैं

मोहब्बत को छुपाए लाख कोई छुप नहीं सकती

ये वो अफ़्साना है जो बे-कहे मशहूर होता है

थमे आँसू तो फिर तुम शौक़ से घर को चले जाना

कहाँ जाते हो इस तूफ़ान में पानी ज़रा ठहरे

दिल-ए-ज़ार मज़ा देख लिया उल्फ़त का

हम कहते थे कि इस काम में ज़िल्लत होगी

वादा नहीं पयाम नहीं गुफ़्तुगू नहीं

हैरत है ख़ुदा मुझे क्यूँ इंतिज़ार है

दो ही दिन में ये सनम होश-रुबा होते हैं

कल के तर्शे हुए बुत आज ख़ुदा होते हैं

नूर-ए-बदन से फैली अंधेरे में चाँदनी

कपड़े जो उस ने शब को उतारे पलंग पर

मुँह पर नक़ाब-ए-ज़र्द हर इक ज़ुल्फ़ पर गुलाल

होली की शाम ही तो सहर है बसंत की

दिल प्यार की नज़र के लिए बे-क़रार है

इक तीर इस तरफ़ भी ये ताज़ा शिकार है

चुप रहो क्यूँ मिज़ाज पूछते हो

हम जिएँ या मरें तुम्हें क्या है

अहल-ए-जन्नत मुझे लेते हैं दोज़ख़ वाले

किस जगह जा के तुम्हारा ये गुनहगार रहे

हाल-ए-दिल सुनते नहीं ये कह के ख़ुश कर देते हैं

फिर कभी फ़ुर्सत में सुन लेंगे कहानी आप की

मेरी ही जान के दुश्मन हैं नसीहत वाले

मुझ को समझाते हैं उन को नहीं समझाते हैं

माँगिये जो ख़ुदा से तो माँगिये किस से

जो दे रहा है उसी से सवाल होता है

छोड़ना है तो इल्ज़ाम लगा कर छोड़ो

कहीं मिल जाओ तो फिर लुत्फ़-ए-मुलाक़ात रहे

बाल अपने उस परी-रू ने सँवारे रात भर

साँप लोटे सैकड़ों दिल पर हमारे रात भर

हाल-ए-दिल यार को महफ़िल में सुनाएँ क्यूँ-कर

मुद्दई कान इधर और उधर रखते हैं

आप तो मुँह फेर कर कहते हैं आने के लिए

वस्ल का वादा ज़रा आँखें मिला कर कीजिए

गया 'जौहर' अजब उल्टा ज़माना क्या कहें

दोस्त वो करते हैं बातें जो अदू करते नहीं

आख़िर इक रोज़ तो पैवंद-ए-ज़मीं होना है

जामा-ए-ज़ीस्त नया और पुराना कैसा

देखिए क्या दिखाती है तक़दीर

चुप खड़ा हूँ गुनाहगारों में

काबे में भी वही है शिवाले में भी वही

दोनों मकान उस के हैं चाहे जिधर रहे

सुनता हूँ मैं कि आज वो तशरीफ़ लाएँगे

अल्लाह सच करे कहीं झूटी ख़बर हो

वाक़िफ़ नहीं कि पाँव में पड़ती हैं बेड़ियाँ

दूल्हे को ये ख़ुशी है कि मेरी बरात है

पूरी होती हैं तसव्वुर में उमीदें क्या क्या

दिल में सब कुछ है मगर पेश-ए-नज़र कुछ भी नहीं

अपनी ज़बान से मुझे जो चाहे कह लें आप

बढ़ बढ़ के बोलना नहीं अच्छा रक़ीब का

इस क़मर को कभी तो देखेंगे

तीस दिन होते हैं महीने के

अब इत्र भी मलो तो तकल्लुफ़ की बू कहाँ

वो दिन हवा हुए जो पसीना गुलाब था

बरसात का मज़ा तिरे गेसू दिखा गए

अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए

जो कुछ पड़ती है सर पर सब उठाता है मोहब्बत में

जहाँ दिल गया फिर आदमी मजबूर होता है

कौन होते हैं वो महफ़िल से उठाने वाले

यूँ तो जाते भी मगर अब नहीं जाने वाले

सीने से लिपटो या गला काटो

हम तुम्हारे हैं दिल तुम्हारा है

ख़्वाब में नाम तिरा ले के पुकार उठता हूँ

बे-ख़ुदी में भी मुझे याद तिरी याद की है

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