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ग़म पर शेर

ग़म हमारी ज़िंदगी का एक

अनिवार्य रंग है और इस को कई तरह से स्थायित्व हासिल है । हालाँकि ख़ुशी भी हमारी ज़िंदगी का ही एक रंग है लेकिन इस को उस तरह से स्थायित्व हासिल नहीं है । उर्दू शायरी में ग़म-ए-दौराँ, ग़म-ए-जानाँ, ग़म-ए-इश्क़, गम-ए-रोज़गार जैसे शब्द-संरचना या मिश्रित शब्द-संरचना का प्रयोग अधिक होता है । उर्दू शायरी का ये रूप वास्तव में ज़िंदगी का एक दुखद वर्णन है । विरह या जुदाई सिर्फ़ आशिक़ का अपने माशूक़ से भौतिक-सुख या शारीरिक स्पर्श का न होना ही नहीं बल्कि इंसान की बद-नसीबी / महरूमी का रूपक है हमारा यह चयन ग़म और दुख के व्यापक क्षेत्र की एक सैर है।

ग़म से नाज़ुक ज़ब्त-ए-ग़म की बात है

ये भी दरिया है मगर ठहरा हुआ

फ़ना निज़ामी कानपुरी

तो रंज-ओ-ग़म से ही रब्त है ही आश्ना-ए-ख़ुशी हूँ मैं

मिरी ज़िंदगी भी अजीब है इसे मंज़िलों का पता नहीं

सलीम सिद्दीक़ी

ग़म में डूबे ही रहे दम हमारा निकला

बहर-ए-हस्ती का बहुत दूर किनारा निकला

बेख़ुद देहलवी

अश्क-ए-ग़म दीदा-ए-पुर-नम से सँभाले गए

ये वो बच्चे हैं जो माँ बाप से पाले गए

मीर अनीस

ग़म-ओ-अलम से जो ताबीर की ख़ुशी मैं ने

बहुत क़रीब से देखी है ज़िंदगी मैं ने

फ़िगार उन्नावी

उसे भी जाते हुए तुम ने मुझ से छीन लिया

तुम्हारा ग़म तो मिरी आरज़ू का ज़ेवर था

आज़ाद गुलाटी

यारो हुदूद-ए-ग़म से गुज़रने लगा हूँ मैं

मुझ को समेट लो कि बिखरने लगा हूँ मैं

फ़राग़ रोहवी

तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़

किस से किस का गिला करे कोई

हादी मछलीशहरी

ग़म में कुछ ग़म का मशग़ला कीजे

दर्द की दर्द से दवा कीजे

मंज़र लखनवी

चिंगारियाँ डाल मिरे दिल के घाव में

मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ ग़मों के अलाव में

सैफ़ ज़ुल्फ़ी

वो बात ज़रा सी जिसे कहते हैं ग़म-ए-दिल

समझाने में इक उम्र गुज़र जाए है प्यारे

कलीम आजिज़

ग़म की तकमील का सामान हुआ है पैदा

लाइक़-ए-फ़ख़्र मिरी बे-सर-ओ-सामानी है

हेंसन रेहानी

मिरी रूदाद-ए-ग़म वो सुन रहे हैं

तबस्सुम सा लबों पर रहा है

जिगर मुरादाबादी

दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

क्या कहूँ किस तरह से जीता हूँ

ग़म को खाता हूँ आँसू पीता हूँ

सैय्यद मोहम्मद मीर असर

पत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी है

ख़ुद राह बना लेगा बहता हुआ पानी है

बशीर बद्र

हम अहल-ए-दिल ने मेयार-ए-मोहब्बत भी बदल डाले

जो ग़म हर फ़र्द का ग़म है उसी को ग़म समझते हैं

अली जवाद ज़ैदी

ख़ामुशी से हुई फ़ुग़ाँ से हुई

इब्तिदा रंज की कहाँ से हुई

अदा जाफ़री

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ महसूस हो जहाँ

मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया

साहिर लुधियानवी

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है

जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिए

निदा फ़ाज़ली

ज़िंदगी दी हिसाब से उस ने

और ग़म बे-हिसाब लिक्खा है

एजाज़ अंसारी

ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज

शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक

मिर्ज़ा ग़ालिब

शिकवा-ए-ग़म तिरे हुज़ूर किया

हम ने बे-शक बड़ा क़ुसूर किया

हसरत मोहानी

इलाही एक ग़म-ए-रोज़गार क्या कम था

कि इश्क़ भेज दिया जान-ए-मुब्तला के लिए

हफ़ीज़ जालंधरी

ख़िरद ढूँढती रह गई वजह-ए-ग़म

मज़ा ग़म का दर्द आश्ना ले गया

कालीदास गुप्ता रज़ा

जाने हार है या जीत क्या है

ग़मों पर मुस्कुराना गया है

सय्यद एहतिशाम हुसैन

अब तो ख़ुशी का ग़म है ग़म की ख़ुशी मुझे

बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे

शकील बदायूनी

ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत

इसी मौज ने डुबोया इसी मौज ने उभारा

फ़ारूक़ बाँसपारी

इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया

फिर कहाँ उस में नशात ग़म रहे

दत्तात्रिया कैफ़ी

पूछो ज़रा ये कौन सी दुनिया से आए हैं

कुछ लोग कह रहे हैं हमें कोई ग़म नहीं

अक़ील नोमानी

ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब

ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता

अख़्तर शीरानी

ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है कहाँ बचें कि दिल है

ग़म-ए-इश्क़ गर होता ग़म-ए-रोज़गार होता

मिर्ज़ा ग़ालिब

हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया

तुम ने हमारे ग़म के फ़साने बनाए हैं

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं

फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं

फ़रहत एहसास

मिरी ज़िंदगी का हासिल तिरे ग़म की पासदारी

तिरे ग़म की आबरू है मुझे हर ख़ुशी से प्यारी

आमिर उस्मानी

ग़म मुझे ना-तवान रखता है

इश्क़ भी इक निशान रखता है

जुरअत क़लंदर बख़्श

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

कैफ़ी आज़मी

भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई

आईना देखें तो चेहरे नज़र आते हैं कई

फ़ुज़ैल जाफ़री

ग़म से बहल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं

दर्द में ढल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं

पीरज़ादा क़ासीम

ग़मों से बैर था सो हम ने ख़ुद-कुशी कर ली

शजर गिरा के परिंदों से इंतिक़ाम लिया

बालमोहन पांडेय

ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते

किन बहानों से तबीअ'त राह पर लाई गई

साहिर लुधियानवी

ग़म-ए-हबीब नहीं कुछ ग़म-ए-जहाँ से अलग

ये अहल-ए-दर्द ने क्या मसअले उठाए हैं

अबु मोहम्मद सहर

सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं

और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं

जौन एलिया

तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी

ऐसी दुआ माँग जिसे बद-दुआ कहें

अबु मोहम्मद सहर

तुझ को पा कर भी कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल

इतना आसान तिरे इश्क़ का ग़म था ही नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ मेरे अश्क-ए-ग़म की तर्जुमानी है

कोई कहता है मोती है कोई कहता है पानी है

फ़िगार उन्नावी

रहें ग़म की शरर-अंगेज़ियाँ या-रब क़यामत तक

'हया' ग़म से मिलती गर कभी फ़ुर्सत तो अच्छा था

हया लखनवी

इक इश्क़ का ग़म आफ़त और उस पे ये दिल आफ़त

या ग़म दिया होता या दिल दिया होता

चराग़ हसन हसरत

दुख दे या रुस्वाई दे

ग़म को मिरे गहराई दे

सलीम अहमद

ग़म मुझे देते हो औरों की ख़ुशी के वास्ते

क्यूँ बुरे बनते हो तुम नाहक़ किसी के वास्ते

रियाज़ ख़ैराबादी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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