जुदाई पर शेर
इश्क़-ओ-मोहब्बत में फ़िराक़,
वियोग और जुदाई एक ऐसी कैफ़ियत है जिस में आशिक़-ओ-माशूक़ का चैन-ओ-सुकून छिन जाता है । उर्दू शाइरी के आशिक़-ओ-माशूक़ इस कैफ़ियत में हिज्र के ऐसे तजरबे से गुज़रते हैं, जिस का कोई अंजाम नज़र नहीं आता । बे-चैनी और बे-कली की निरंतरता उनकी क़िस्मत हो जाती है । क्लासिकी उर्दू शाइरी में इस तजरबे को ख़ूब बयान किया गया है । शाइरों ने अपने-अपने तजरबे के पेश-ए-नज़र इस विषय के नए-नए रंग तलाश किए हैं । यहाँ प्रस्तुत संकलन से आप को जुदाई के शेरी-इज़हार का अंदाज़ा होगा ।
ख़ुश्क ख़ुश्क सी पलकें और सूख जाती हैं
मैं तिरी जुदाई में इस तरह भी रोता हूँ
उस मेहरबाँ नज़र की इनायत का शुक्रिया
तोहफ़ा दिया है ईद पे हम को जुदाई का
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं
मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती हैं महीनों में
चूँ शम-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़े मेहर-ए-आँ-मह बगश्तम आख़िर
न नींद नैनाँ न अंग चैनाँ न आप आवे न भेजे पतियाँ
मैं ने समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी
हमेशा के लिए मुझ से बिछड़ जा
ये मंज़र बार-हा देखा न जाए
वहशी रक़्स चमकते ख़ंजर सुर्ख़ अलाव
जंगल जंगल काँटे-दार क़बीले फूल
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है
तुम्हारे हिज्र में क्यूँ ज़िंदगी न मुश्किल हो
तुम्हीं जिगर हो तुम्हीं जान हो तुम्हीं दिल हो
वक़्त-ए-रुख़्सत तिरी आँखों का वो झुक सा जाना
इक मुसाफ़िर के लिए ज़ाद-ए-सफ़र है ऐ दोस्त
इतना बे-ताब न हो मुझ से बिछड़ने के लिए
तुझ को आँखों से नहीं दिल से जुदा करना है
उर्यां हरारत-ए-तप-ए-फ़ुर्क़त से मैं रहा
हर बार मेरे जिस्म की पोशाक जल गई
वो तेरे बिछड़ने का समाँ याद जब आया
बीते हुए लम्हों को सिसकते हुए देखा
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल
उस से मिलने की ख़ुशी ब'अद में दुख देती है
जश्न के ब'अद का सन्नाटा बहुत खलता है
तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं
जान बहुत शर्मिंदा हैं
कुछ ख़बर ले कि तेरी महफ़िल से
दूर बैठा है जाँ-ब-लब कोई
उसी मक़ाम पे कल मुझ को देख कर तन्हा
बहुत उदास हुए फूल बेचने वाले
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा न पूछिए
महशर तलक कहूँ मैं अगर मुख़्तसर कहूँ
पा कर भी तो नींद उड़ गई थी
खो कर भी तो रत-जगे मिले हैं
कड़ा है दिन बड़ी है रात जब से तुम नहीं आए
दिगर-गूँ हैं मिरे हालात जब से तुम नहीं आए
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
व्याख्या
उर्दू शायरी में यूँ तो तन्हाई कोई नया मौज़ू नहीं है लेकिन हर शायर की तन्हाई अलग रंग की होती है, बुनियादी जज़्बात दर अस्ल एक से होते हैं मगर एक ही ख़मीर अलग अलग साँचे में ढल कर जुदा जुदा रूप में ज़ाहिर होता है।
ग़ालिब का ये शेर देखिए, ये शेर तन्हाई के कर्ब को एक अलग ही शिद्दत देता है।
तन्हा होने पर इंसान का वक़्त काटना मुश्किल हो जाता है, ये ज़ाहिर सी बात है।
लेकिन तन्हाई में जब किसी की जुदाई शामिल हो, तब वो तन्हाई इंसान को कितनी गिराँ गुज़रती है ये देखिए,
काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई न पूछ
तन्हाई में वक़्त गुज़ारने की मुश्किलें न पूछ, मुश्किलों को झेलना काव-काव से ज़ाहिर किया है।
काव-काव यानी खोदना, काविश लफ़्ज़ इसी से जुड़ा है।
इस शेर में काव-काव की आवाज़ भी ख़ूब काम कर रही है, बेख़ुद मोहानी के नज़दीक ग़ालिब ने इसे ऐसे इस्तिमाल किया है कि यह इस्म-ए-सौत बन गया है और इसे ग़ालिब की ही ईजाद कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी में इसी को आनामाटापिया कहते हैं हालाँकि न ये पूरी तरह इस्म-ए-सौत है न ही आनामाटापिया।
इस से हमें एक इशारा भी मिलता है, तन्हाई की ज़िंदगी काटना इतना मुश्किल है जैसे लगातार पत्थर खोदना।
खोदने या पत्थर तोड़ने से बहुत मुमकिन है कि हमारा ज़हन उस किरदार की तरफ़ जाए जिस का नाम भी इसी वजह से "कोहकन" है।
पहले मिसरे से हमें कोहकन की तरफ़ हल्का सा इशारा मिलता है, अगला मिसरा देखिए,
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
अब अगर आप कोहकन (फ़रहाद) के क़िस्से से वाक़िफ़ हैं तो शेर में जो तल्मीह है वो समझ चुके होंगे।
वाक़िफ़ नहीं हैं तो मुख़्तसर क़िस्सा ये है कि फ़रहाद के शीरीं से मिलने की शर्त रखी गयी थी।
शर्त थी कि फ़रहाद अगर पहाड़ खोद-तोड़ कर जू-ए-शीर यानी दूध की नदी इस पार ले आएगा तो शीरीं उस की होगी।
फ़रहाद पहाड़ खोद कर जू-ए-शीर तो ले आया लेकिन उससे कहा गया कि शीरीं मर चुकी है, ये ख़बर सुनते ही फ़रहाद भी अपने सर पर तेशा मार कर मर गया।
फ़रहाद को इसी वाक़ेऐ के बाद कोहकन कहा जाने लगा।
ग़ालिब ने ख़ुद को फ़रहाद की जगह रखा है। शाम से सुब्ह तक के वक़्त को पहाड़ माना है, अब इस शाम से अगली सुब्ह तक पहुँचना मानो फ़रहाद का पहाड़ तोड़ना ही है।
जोश मलीहाबादी कहते हैं कि इस में एक नुक्ता यह भी है कि फ़रहाद पहाड़ तोड़ने के बाद मर गया था, तो एक इशारा ये भी है कि शाम से सुब्ह करने में अब जान ही जाएगी।
सब समझ कर शे'र को फिर से पढ़िए और देखिए कि लुत्फ़ दो-बाला हुआ कि नहीं?
काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
प्रियंवदा इल्हान
न बहलावा न समझौता जुदाई सी जुदाई है
'अदा' सोचो तो ख़ुशबू का सफ़र आसाँ नहीं होता
जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ
उस ने सदियों की जुदाई दी है
मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूँ
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत
हम को ताक़त नहीं जुदाई की
साँस लेने में दर्द होता है
अब हवा ज़िंदगी की रास नहीं
टुक ख़बर ले कि हर घड़ी हम को
अब जुदाई बहुत सताती है
इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
किसी मा'ज़ूर को देखोगे तो याद आऊँगा
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
आँख में फैलता गया काजल
बिछड़ते वक़्त ढलकता न गर इन आँखों से
इस एक अश्क का क्या क्या मलाल रह जाता
उस के बारे में बहुत सोचता हूँ
मुझ से बिछड़ा तो किधर जाएगा
ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
बता ये तुझ से जुदाई का वक़्त है कि नहीं
दौलत-ए-ग़म भी ख़स-ओ-ख़ाक-ए-ज़माना में गई
तुम गए हो तो मह ओ साल कहाँ ठहरे हैं
यूँ लगे दोस्त तिरा मुझ से ख़फ़ा हो जाना
जिस तरह फूल से ख़ुशबू का जुदा हो जाना
बिछड़ के तुझ से न देखा गया किसी का मिलाप
उड़ा दिए हैं परिंदे शजर पे बैठे हुए
तुझ से बिछड़ना कोई नया हादसा नहीं
ऐसे हज़ारों क़िस्से हमारी ख़बर में हैं
फ़ुर्क़त-ए-यार में इंसान हूँ मैं या कि सहाब
हर बरस आ के रुला जाती है बरसात मुझे
तुम नहीं पास कोई पास नहीं
अब मुझे ज़िंदगी की आस नहीं
रोते फिरते हैं सारी सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना
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टैग्ज़ : गिर्या-ओ-ज़ारीऔर 1 अन्य
आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती
इक शक्ल हमें फिर भाई है इक सूरत दिल में समाई है
हम आज बहुत सरशार सही पर अगला मोड़ जुदाई है
जिस रात में न हिज्र हो ने वस्ल 'अजमली'
उस रात में कहाँ की ग़ज़ल जागते रहो
वो शख़्स जिस को दिल ओ जाँ से बढ़ के चाहा था
बिछड़ गया तो ब-ज़ाहिर कोई मलाल नहीं
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
ग़म दे गया नशात-ए-शनासाई ले गया
वो अपने साथ अपनी मसीहाई ले गया
वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने
चारों जानिब रची हुई है अश्कों की बू-बास
इस रस्ते से गुज़रे होंगे क़ाफ़िले हिजरत वाले