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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

किस पर शेर

बोसा यानी चुंबन को उर्दू

शाइरी की हर परंपरा में ख़ास अहमियत हासिल है । इश्क़-ओ-आशिक़ी के मामलात में ही इस के कई रंग नज़र आते हैं । उर्दू शाइरी में बोसे की तलब की कैफ़ियतों से ले कर माशूक़ के इनकार की सूरतों तक का बयान काफ़ी दिलचस्प है । यहाँ शोख़ी है, हास्य है, हसरत है और ग़ुस्से की मिली-जुली कैफ़ियतें हैं । प्रसुतुत शाइरी से आप को उर्दू शाइरी के कुछ ख़ास रंगों का अंदाज़ा होगा ।

आता है जी में साक़ी-ए-मह-वश पे बार बार

लब चूम लूँ तिरा लब-ए-पैमाना छोड़ कर

जलील मानिकपूरी

हो बरहम जो बोसा बे-इजाज़त ले लिया मैं ने

चलो जाने दो बेताबी में ऐसा हो ही जाता है

जलाल लखनवी

जी में है इतने बोसे लीजे कि आज

महर उस के वहाँ से उठ जावे

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

बोसे अपने आरिज़-ए-गुलफ़ाम के

ला मुझे दे दे तिरे किस काम के

मुज़्तर ख़ैराबादी

बोसे बीवी के हँसी बच्चों की आँखें माँ की

क़ैद-ख़ाने में गिरफ़्तार समझिए हम को

फ़ुज़ैल जाफ़री

बोसे में होंट उल्टा आशिक़ का काट खाया

तेरा दहन मज़े सीं पुर है पे है कटोरा

आबरू शाह मुबारक

सभी इनआम नित पाते हैं शीरीं-दहन तुझ से

कभू तू एक बोसे से हमारा मुँह भी मीठा कर

जुरअत क़लंदर बख़्श

बोसा लिया जो उस लब-ए-शीरीं का मर गए

दी जान हम ने चश्मा-ए-आब-ए-हयात पर

अमीर मीनाई

बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है

गालियाँ भी मिलीं हम को तो मिलीं थोड़ी सी

निज़ाम रामपुरी

मोहब्बत एक पाकीज़ा अमल है इस लिए शायद

सिमट कर शर्म सारी एक बोसे में चली आई

मुनव्वर राना

बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई

मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा

साक़ी फ़ारुक़ी

लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है

कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है

आसी ग़ाज़ीपुरी

मिल गए थे एक बार उस के जो मेरे लब से लब

'उम्र भर होंटों पे अपने मैं ज़बाँ फेरा किया

जुरअत क़लंदर बख़्श

हम को गाली के लिए भी लब हिला सकते नहीं

ग़ैर को बोसा दिया तो मुँह से दिखला कर दिया

आदिल मंसूरी

उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ

शौक़-ए-फ़ुज़ूल जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए

मिर्ज़ा ग़ालिब

गुड़ सीं मीठा है बोसा तुझ लब का

इस जलेबी में क़ंद शक्कर है

फ़ाएज़ देहलवी

उस वक़्त दिल पे क्यूँके कहूँ क्या गुज़र गया

बोसा लेते लिया तो सही लेक मर गया

आबरू शाह मुबारक

बोसा जो तलब मैं ने किया हँस के वो बोले

ये हुस्न की दौलत है लुटाई नहीं जाती

अज्ञात

क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें

लब को तुम्हारे लब से मिला कर कहे बग़ैर

बहादुर शाह ज़फ़र

बोसाँ लबाँ सीं देने कहा कह के फिर गया

प्याला भरा शराब का अफ़्सोस गिर गया

आबरू शाह मुबारक

बोले वो बोसा-हा-ए-पैहम पर

अरे कम-बख़्त कुछ हिसाब भी है

हसन बरेलवी

मज़ा आब-ए-बक़ा का जान-ए-जानाँ

तिरा बोसा लिया होवे सो जाने

इश्क़ औरंगाबादी

लब-ए-जाँ-बख़्श तक जा कर रहे महरूम बोसा से

हम इस पानी के प्यासे थे जो तड़पाता है साहिल पर

हबीब मूसवी

बोसा होंटों का मिल गया किस को

दिल में कुछ आज दर्द मीठा है

मुनीर शिकोहाबादी

धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का

चंदा वसूल होता है साहब दबाव से

अकबर इलाहाबादी

दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को

दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे

मिर्ज़ा ग़ालिब

बोसा-ए-रुख़्सार पर तकरार रहने दीजिए

लीजिए या दीजिए इंकार रहने दीजिए

हफ़ीज़ जौनपुरी

एक बोसा होंट पर फैला तबस्सुम बन गया

जो हरारत थी मिरी उस के बदन में गई

काविश बद्री

क्या क़यामत है कि आरिज़ उन के नीले पड़ गए

हम ने तो बोसा लिया था ख़्वाब में तस्वीर का

अज्ञात

बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह

जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है

मिर्ज़ा ग़ालिब

एक बोसे के तलबगार हैं हम

और माँगें तो गुनहगार हैं हम

अज्ञात

जी उठूँ फिर कर अगर तू एक बोसा दे मुझे

चूसना लब का तिरे है मुझ को जूँ आब-ए-हयात

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

नमकीं गोया कबाब हैं फीके शराब के

बोसा है तुझ लबाँ का मज़े-दार चटपटा

आबरू शाह मुबारक

लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का

अज़ीज़ो अब भी मिरी कुछ दिलावरी देखी

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

एक बोसा माँगता है तुम से 'हातिम' सा गदा

जानियो राह-ए-ख़ुदा में ये भी इक ख़ैरात की

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

लुटाते हैं वो दौलत हुस्न की बावर नहीं आता

हमें तो एक बोसा भी बड़ी मुश्किल से मिलता है

जलील मानिकपूरी

सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ

जिन लबों से कि मयस्सर नहीं दुश्नाम मुझे

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

लब-ए-ख़याल से उस लब का जो लिया बोसा

तो मुँह ही मुँह में अजब तरह का मज़ा आया

जुरअत क़लंदर बख़्श

मैं रहा हूँ अभी चूम कर बदन उस का

सुना था आग पे बोसा रक़म नहीं होता

शनावर इस्हाक़

जल्दी तलब-ए-बोसा पे कीजे तो कहे वाह

ऐसा इसे क्या समझे हो तुम मुँह का निवाला

जुरअत क़लंदर बख़्श

हम तो क्यूँकर कहें कि बोसा दो

गर इनायत करो इनायत है

हकीम देहलवी

जो उन को लिपटा के गाल चूमा हया से आने लगा पसीना

हुई है बोसों की गर्म भट्टी खिंचे क्यूँकर शराब-ए-आरिज़

अहमद हुसैन माइल

क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया

बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है

मिर्ज़ा ग़ालिब

रुख़्सार पर है रंग-ए-हया का फ़रोग़ आज

बोसे का नाम मैं ने लिया वो निखर गए

हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा

दिल-लगी में हसरत-ए-दिल कुछ निकल जाती तो है

बोसे ले लेते हैं हम दो-चार हँसते बोलते

मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़

ये दिल-ए-बेताब की सारी ख़ता थी मैं था

मीरज़ा अबुल मुज़फ़्फर ज़फ़र

लजा कर शर्म खा कर मुस्कुरा कर

दिया बोसा मगर मुँह को बना कर

अज्ञात

बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले

देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं

अमानत लखनवी

बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए

ये है मसल कि फूल नहीं पंखुड़ी सही

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

ले लो बोसा अपना वापस किस लिए तकरार की

क्या कोई जागीर हम ने छीन ली सरकार की

अकबर मेरठी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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