किस पर शेर
बोसा यानी चुंबन को उर्दू
शाइरी की हर परंपरा में ख़ास अहमियत हासिल है । इश्क़-ओ-आशिक़ी के मामलात में ही इस के कई रंग नज़र आते हैं । उर्दू शाइरी में बोसे की तलब की कैफ़ियतों से ले कर माशूक़ के इनकार की सूरतों तक का बयान काफ़ी दिलचस्प है । यहाँ शोख़ी है, हास्य है, हसरत है और ग़ुस्से की मिली-जुली कैफ़ियतें हैं । प्रसुतुत शाइरी से आप को उर्दू शाइरी के कुछ ख़ास रंगों का अंदाज़ा होगा ।
आता है जी में साक़ी-ए-मह-वश पे बार बार
लब चूम लूँ तिरा लब-ए-पैमाना छोड़ कर
जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
महर उस के वहाँ से उठ जावे
बोसे अपने आरिज़-ए-गुलफ़ाम के
ला मुझे दे दे तिरे किस काम के
बोसे बीवी के हँसी बच्चों की आँखें माँ की
क़ैद-ख़ाने में गिरफ़्तार समझिए हम को
बोसे में होंट उल्टा आशिक़ का काट खाया
तेरा दहन मज़े सीं पुर है पे है कटोरा
सभी इनआम नित पाते हैं ऐ शीरीं-दहन तुझ से
कभू तू एक बोसे से हमारा मुँह भी मीठा कर
बोसा लिया जो उस लब-ए-शीरीं का मर गए
दी जान हम ने चश्मा-ए-आब-ए-हयात पर
बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है
गालियाँ भी मिलीं हम को तो मिलीं थोड़ी सी
मोहब्बत एक पाकीज़ा अमल है इस लिए शायद
सिमट कर शर्म सारी एक बोसे में चली आई
बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई
मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है
मिल गए थे एक बार उस के जो मेरे लब से लब
'उम्र भर होंटों पे अपने मैं ज़बाँ फेरा किया
हम को गाली के लिए भी लब हिला सकते नहीं
ग़ैर को बोसा दिया तो मुँह से दिखला कर दिया
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए
गुड़ सीं मीठा है बोसा तुझ लब का
इस जलेबी में क़ंद ओ शक्कर है
उस वक़्त दिल पे क्यूँके कहूँ क्या गुज़र गया
बोसा लेते लिया तो सही लेक मर गया
क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिला कर कहे बग़ैर
बोसाँ लबाँ सीं देने कहा कह के फिर गया
प्याला भरा शराब का अफ़्सोस गिर गया
बोले वो बोसा-हा-ए-पैहम पर
अरे कम-बख़्त कुछ हिसाब भी है
मज़ा आब-ए-बक़ा का जान-ए-जानाँ
तिरा बोसा लिया होवे सो जाने
लब-ए-जाँ-बख़्श तक जा कर रहे महरूम बोसा से
हम इस पानी के प्यासे थे जो तड़पाता है साहिल पर
बोसा होंटों का मिल गया किस को
दिल में कुछ आज दर्द मीठा है
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
चंदा वसूल होता है साहब दबाव से
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे
बोसा-ए-रुख़्सार पर तकरार रहने दीजिए
लीजिए या दीजिए इंकार रहने दीजिए
एक बोसा होंट पर फैला तबस्सुम बन गया
जो हरारत थी मिरी उस के बदन में आ गई
क्या क़यामत है कि आरिज़ उन के नीले पड़ गए
हम ने तो बोसा लिया था ख़्वाब में तस्वीर का
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है
जी उठूँ फिर कर अगर तू एक बोसा दे मुझे
चूसना लब का तिरे है मुझ को जूँ आब-ए-हयात
नमकीं गोया कबाब हैं फीके शराब के
बोसा है तुझ लबाँ का मज़े-दार चटपटा
लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का
अज़ीज़ो अब भी मिरी कुछ दिलावरी देखी
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टैग : समलैंगिकता
एक बोसा माँगता है तुम से 'हातिम' सा गदा
जानियो राह-ए-ख़ुदा में ये भी इक ख़ैरात की
लुटाते हैं वो दौलत हुस्न की बावर नहीं आता
हमें तो एक बोसा भी बड़ी मुश्किल से मिलता है
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
जिन लबों से कि मयस्सर नहीं दुश्नाम मुझे
लब-ए-ख़याल से उस लब का जो लिया बोसा
तो मुँह ही मुँह में अजब तरह का मज़ा आया
मैं आ रहा हूँ अभी चूम कर बदन उस का
सुना था आग पे बोसा रक़म नहीं होता
जल्दी तलब-ए-बोसा पे कीजे तो कहे वाह
ऐसा इसे क्या समझे हो तुम मुँह का निवाला
हम तो क्यूँकर कहें कि बोसा दो
गर इनायत करो इनायत है
जो उन को लिपटा के गाल चूमा हया से आने लगा पसीना
हुई है बोसों की गर्म भट्टी खिंचे न क्यूँकर शराब-ए-आरिज़
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है
रुख़्सार पर है रंग-ए-हया का फ़रोग़ आज
बोसे का नाम मैं ने लिया वो निखर गए
दिल-लगी में हसरत-ए-दिल कुछ निकल जाती तो है
बोसे ले लेते हैं हम दो-चार हँसते बोलते
बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़
ये दिल-ए-बेताब की सारी ख़ता थी मैं न था
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
ये है मसल कि फूल नहीं पंखुड़ी सही
ले लो बोसा अपना वापस किस लिए तकरार की
क्या कोई जागीर हम ने छीन ली सरकार की