भरोसा शायरी
इन्सान और इन्सान के दर्मियान ही नहीं ख़ुदा और बंदे के बीच भी अगर कोई रिश्ता क़ायम है तो वो सिर्फ़ भरोसे की मज़बूती की वजह से है। शायर का दिल बहुत नाज़क होता है इसी लिए जब दिल टूटने की आवाज़ कहीं उसकी शायरी में सुनाई देती है तो भरोसा टूटने का मातम भी लफ़्ज़ों की गूंज में शामिल होता है। भरोसा शायरी का यह चयन आपको यक़ीनन पसंद आएगा। हमें पूरा भरोसा है इस बात परः
दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
मुसाफ़िरों की मोहब्बत का ए'तिबार न कर
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था
no promise,surety, nor any hope was due
yet I had little choice but to wait for you
आप का ए'तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे
who can depend on what you say?
who will wait each every day?
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
मैं आदमी हूँ मिरा ए'तिबार मत करना
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता
that your promise made me live, let that not deceive
happily my life I'd give, If I could but believe
मैं अब किसी की भी उम्मीद तोड़ सकता हूँ
मुझे किसी पे भी अब कोई ए'तिबार नहीं
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
तालों की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
हर-चंद ए'तिबार में धोके भी हैं मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए
मैं उस के वादे का अब भी यक़ीन करता हूँ
हज़ार बार जिसे आज़मा लिया मैं ने
To this day her promises I do still believe
who a thousand times has been wont to deceive
मुझ से बिगड़ गए तो रक़ीबों की बन गई
ग़ैरों में बट रहा है मिरा ए'तिबार आज
मिरी तरफ़ से तो टूटा नहीं कोई रिश्ता
किसी ने तोड़ दिया ए'तिबार टूट गया
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को
बहुत क़रीब रही है ये ज़िंदगी हम से
बहुत अज़ीज़ सही ए'तिबार कुछ भी नहीं
सुबूत है ये मोहब्बत की सादा-लौही का
जब उस ने वादा किया हम ने ए'तिबार किया
दर्द-ए-दिल क्या बयाँ करूँ 'रश्की'
उस को कब ए'तिबार आता है
हम आज राह-ए-तमन्ना में जी को हार आए
न दर्द-ओ-ग़म का भरोसा रहा न दुनिया का
जब नहीं कुछ ए'तिबार-ए-ज़िंदगी
इस जहाँ का शाद क्या नाशाद क्या
ये और बात कि इक़रार कर सकें न कभी
मिरी वफ़ा का मगर उन को ए'तिबार तो है
उस की ख़्वाहिश पे तुम को भरोसा भी है उस के होने न होने का झगड़ा भी है
लुत्फ़ आया तुम्हें गुमरही ने कहा गुमरही के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल