निगाह पर शेर
माशूक़ की एक निगाह के
लिए तड़पना और अगर निगाह पड़ जाए तो उस से ज़ख़्मी हो कर निढाल हो जाना आशिक़ का मुक़द्दर होता है। एक आशिक़ को नज़र अंदाज करने के दुख, और देखे जाने पर मिलने वाले एक गहरे मलाल से गुज़रना होता है। यहाँ हम कुछ ऐसे ही मुंतख़ब अशआर पेश कर रहे हैं जो इश्क़ के इस दिल-चस्प बयानिए को बहुत मज़ेदार अंदाज़ में समेटे हुए हैं।
मैं उम्र भर जवाब नहीं दे सका 'अदम'
वो इक नज़र में इतने सवालात कर गए
बे-ख़ुद भी हैं होशियार भी हैं देखने वाले
इन मस्त निगाहों की अदा और ही कुछ है
सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास
तिरछी ज़रा हुई तो हैं शमशीर के ख़्वास
तड़प रहा है दिल इक नावक-ए-जफ़ा के लिए
उसी निगाह से फिर देखिए ख़ुदा के लिए
कब उन आँखों का सामना न हुआ
तीर जिन का कभी ख़ता न हुआ
दीद के क़ाबिल हसीं तो हैं बहुत
हर नज़र दीदार के क़ाबिल नहीं
आँखें जो उठाए तो मोहब्बत का गुमाँ हो
नज़रों को झुकाए तो शिकायत सी लगे है
देखा हुज़ूर को जो मुकद्दर तो मर गए
हम मिट गए जो आप ने मैली निगाह की
सब कुछ तो है क्या ढूँडती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का
साक़ी मिरे भी दिल की तरफ़ टुक निगाह कर
लब-तिश्ना तेरी बज़्म में ये जाम रह गया
देखा है किस निगाह से तू ने सितम-ज़रीफ़
महसूस हो रहा है मैं ग़र्क़-ए-शराब हूँ
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है
हाल कह देते हैं नाज़ुक से इशारे अक्सर
कितनी ख़ामोश निगाहों की ज़बाँ होती है
शग़ुफ़्तगी-ए-दिल-ए-कारवाँ को क्या समझे
वो इक निगाह जो उलझी हुई बहार में है
उन मस्त निगाहों ने ख़ुद अपना भरम खोला
इंकार के पर्दे में इक़रार नज़र आए
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी
निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा
जो हम फ़रेब न खाते तो और क्या करते
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो
महसूस कर रहा हूँ ख़ारों में क़ैद ख़ुशबू
आँखों को तेरी जानिब इक बार कर लिया है
हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक
तेरे दिल में मिरी निगाह में है
आँखें न जीने देंगी तिरी बे-वफ़ा मुझे
क्यूँ खिड़कियों से झाँक रही है क़ज़ा मुझे
साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
मुझ को तिरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
अपनी आँखों को झुकाए रखना
वो काफ़िर-निगाहें ख़ुदा की पनाह
जिधर फिर गईं फ़ैसला हो गया
दीदार की तलब के तरीक़ों से बे-ख़बर
दीदार की तलब है तो पहले निगाह माँग
बात तेरी सुनी नहीं मैं ने
ध्यान मेरा तिरी नज़र पर था
अदा अदा तिरी मौज-ए-शराब हो के रही
निगाह-ए-मस्त से दुनिया ख़राब हो के रही
छल-बल उस की निगाह का मत पूछ
सेहर है टोटका है टोना है
मुझे तावीज़ लिख दो ख़ून-ए-आहू से कि ऐ स्यानो
तग़ाफ़ुल टोटका है और जादू है नज़र उस की
पहली नज़र भी आप की उफ़ किस बला की थी
हम आज तक वो चोट हैं दिल पर लिए हुए
अधर उधर मिरी आँखें तुझे पुकारती हैं
मिरी निगाह नहीं है ज़बान है गोया
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था
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निगाह बर्क़ नहीं चेहरा आफ़्ताब नहीं
वो आदमी है मगर देखने की ताब नहीं
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धोका था निगाहों का मगर ख़ूब था धोका
मुझ को तिरी नज़रों में मोहब्बत नज़र आई
उस ने मिरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
फिर भी मिरी निगाह में एक सवाल है नया
नज़र भर के जो देख सकते हैं तुझ को
मैं उन की नज़र देखना चाहता हूँ
जिस तरफ़ उठ गई हैं आहें हैं
चश्म-ए-बद-दूर क्या निगाहें हैं
अबरू ने मिज़ा ने निगह-ए-यार ने यारो
बे-रुत्बा किया तेग़ को ख़ंजर को सिनाँ को
शिकस्त-ए-तौबा की तम्हीद है तिरी तौबा
ज़बाँ पे तौबा 'मुबारक' निगाह साग़र पर
देखी हैं बड़े ग़ौर से मैं ने वो निगाहें
आँखों में मुरव्वत का कहीं नाम नहीं है
कोई किस तरह राज़-ए-उल्फ़त छुपाए
निगाहें मिलीं और क़दम डगमगाए
वो नज़र कामयाब हो के रही
दिल की बस्ती ख़राब हो के रही
ये तिरी मस्त-निगाही ये फ़रोग़-ए-मय-ओ-जाम
आज साक़ी तिरे रिंदों से अदब मुश्किल है