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इंतिज़ार पर शेर

इंतिज़ार ख़ास अर्थों में

दर्दनाक होता है । इसलिए इस को तकलीफ़-देह कैफ़ियत का नाम दिया गया है । जीवन के आम तजरबात से अलग इंतिज़ार उर्दू शाइरी के आशिक़ का मुक़द्दर है । आशिक़ जहाँ अपने महबूब के इंतिज़ार में दोहरा हुआ जाता है वहीं उस का महबूब संग-दिल ज़ालिम, ख़ुद-ग़रज़, बे-वफ़ा, वादा-ख़िलाफ़ और धोके-बाज़ होता है । इश्क़ और प्रेम के इस तय-शुदा परिदृश्य ने उर्दू शाइरी में नए-नए रूपकों का इज़ाफ़ा किया है और इंतिज़ार के दुख को अनन्त-दुख में ढाल दिया है । यहाँ प्रस्तुत संकलन को पढ़िए और इंतिज़ार की अलग-अलग कैफ़ियतों को महसूस कीजिए ।

शायद ये इंतिज़ार की लौ फ़ैसला करे

मैं अपने साथ हूँ कि दरीचों के साथ हूँ

नसीर तुराबी

ये इंतिज़ार नहीं शम्अ है रिफ़ाक़त की

इस इंतिज़ार से तन्हाई ख़ूब-सूरत है

अरशद अब्दुल हमीद

तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तको

तमाम खेल मोहब्बत में इंतिज़ार का है

मुनव्वर राना

अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ

शाम गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या

मुनीर नियाज़ी

मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है

किवाड़ रात को घर का अगर खुला रह जाए

साबिर ज़फ़र

ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'

मैं जा रहा हूँ मिरा इंतिज़ार मत करना

क़ैसर-उल जाफ़री

कोई वा'दा कोई यक़ीं कोई उमीद

मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था

फ़िराक़ गोरखपुरी

रात भी मुरझा चली चाँद भी कुम्हला गया

फिर भी तिरा इंतिज़ार देखिए कब तक रहे

वामिक़ जौनपुरी

क़ुर्बान सौ तरह से किया तुझ पर आप को

तू भी कभू तो जान आया बजाए ईद

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र

देखो तो इंतिज़ार सा है कुछ

मीर तक़ी मीर

देखा होगा तू ने मगर इंतिज़ार में

चलते हुए समय को ठहरते हुए भी देख

मोहम्मद अल्वी

ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया

तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया

दाग़ देहलवी

हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे

तू सामने है और तिरा इंतिज़ार है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

अब उन्हें तशरीफ़ लाना चाहिए

रात में लिखती है रानी रात की

शाद आरफ़ी

जिस को आते देखता हूँ परी कहता हूँ मैं

आदमी भेजा हो मेरे बुलाने के लिए

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर

आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ

अब भी अगर जाओ तो ये रात बड़ी है

साक़िब लखनवी

मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल

हैरत में हूँ ये किस का मुझे इंतिज़ार है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

यारो दुआ करो ये कोई हादसा हो

पहले यूँ इंतिज़ार में लज़्ज़त कभी थी

शकील जाज़िब

मिसाल-ए-शम्अ जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ

मैं इंतिज़ार की हर कैफ़ियत से गुज़रा हूँ

फ़ाज़िल जमीली

मैं ने समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले

तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी

अहमद नदीम क़ासमी

ये कैसा नश्शा है मैं किस अजब ख़ुमार में हूँ

तू के जा भी चुका है मैं इंतिज़ार में हूँ

मुनीर नियाज़ी

तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार कर लेंगे

मगर ये रंज रहेगा कि ज़िंदगी कम है

शाहिद सिद्दीक़ी

नहीं है देर यहाँ अपनी जान जाने में

तुम्हारे आने का बस इंतिज़ार बाक़ी है

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

आप का ए'तिबार कौन करे

रोज़ का इंतिज़ार कौन करे

दाग़ देहलवी

इश्क़ में यार गर वफ़ा करे

क्या करे कोई और क्या करे

हैबत क़ुली ख़ाँ हसरत

आहटें सुन रहा हूँ यादों की

आज भी अपने इंतिज़ार में गुम

रसा चुग़ताई

वो इंतिज़ार की चौखट पे सो गया होगा

किसी से वक़्त तो पूछें कि क्या बजा होगा

बशीर बद्र

तेरे वादे को कभी झूट नहीं समझूँगा

आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा

शहरयार

तुम गए हो तुम मुझ को ज़रा सँभलने दो

अभी तो नश्शा सा आँखों में इंतिज़ार का है

मोहम्मद अहमद रम्ज़

बड़े ताबाँ बड़े रौशन सितारे टूट जाते हैं

सहर की राह तकना ता सहर आसाँ नहीं होता

अदा जाफ़री

हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर गए

ये जानते थे कोई राह देखता होगा

इफ़्तिख़ार आरिफ़

तिरे आने का धोका सा रहा है

दिया सा रात भर जलता रहा है

नासिर काज़मी

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया

फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का

अमीर मीनाई

थक गए हम करते करते इंतिज़ार

इक क़यामत उन का आना हो गया

अख़्तर शीरानी

चले भी आओ मिरे जीते-जी अब इतना भी

इंतिज़ार बढ़ाओ कि नींद जाए

महशर इनायती

काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई पूछ

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

व्याख्या

उर्दू शायरी में यूँ तो तन्हाई कोई नया मौज़ू नहीं है लेकिन हर शायर की तन्हाई अलग रंग की होती है, बुनियादी जज़्बात दर अस्ल एक से होते हैं मगर एक ही ख़मीर अलग अलग साँचे में ढल कर जुदा जुदा रूप में ज़ाहिर होता है।

ग़ालिब का ये शेर देखिए, ये शेर तन्हाई के कर्ब को एक अलग ही शिद्दत देता है।

तन्हा होने पर इंसान का वक़्त काटना मुश्किल हो जाता है, ये ज़ाहिर सी बात है।

लेकिन तन्हाई में जब किसी की जुदाई शामिल हो, तब वो तन्हाई इंसान को कितनी गिराँ गुज़रती है ये देखिए,

काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई पूछ

तन्हाई में वक़्त गुज़ारने की मुश्किलें पूछ, मुश्किलों को झेलना काव-काव से ज़ाहिर किया है।

काव-काव यानी खोदना, काविश लफ़्ज़ इसी से जुड़ा है।

इस शेर में काव-काव की आवाज़ भी ख़ूब काम कर रही है, बेख़ुद मोहानी के नज़दीक ग़ालिब ने इसे ऐसे इस्तिमाल किया है कि यह इस्म-ए-सौत बन गया है और इसे ग़ालिब की ही ईजाद कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी में इसी को आनामाटापिया कहते हैं हालाँकि ये पूरी तरह इस्म-ए-सौत है ही आनामाटापिया।

इस से हमें एक इशारा भी मिलता है, तन्हाई की ज़िंदगी काटना इतना मुश्किल है जैसे लगातार पत्थर खोदना।

खोदने या पत्थर तोड़ने से बहुत मुमकिन है कि हमारा ज़हन उस किरदार की तरफ़ जाए जिस का नाम भी इसी वजह से "कोहकन" है।

पहले मिसरे से हमें कोहकन की तरफ़ हल्का सा इशारा मिलता है, अगला मिसरा देखिए,

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

अब अगर आप कोहकन (फ़रहाद) के क़िस्से से वाक़िफ़ हैं तो शेर में जो तल्मीह है वो समझ चुके होंगे।

वाक़िफ़ नहीं हैं तो मुख़्तसर क़िस्सा ये है कि फ़रहाद के शीरीं से मिलने की शर्त रखी गयी थी।

शर्त थी कि फ़रहाद अगर पहाड़ खोद‌-तोड़ कर जू-ए-शीर यानी दूध की नदी इस पार ले आएगा तो शीरीं उस की होगी।

फ़रहाद पहाड़ खोद कर जू-ए-शीर तो ले आया लेकिन उससे कहा गया कि शीरीं मर चुकी है, ये ख़बर सुनते ही फ़रहाद भी अपने सर पर तेशा मार कर मर गया।

फ़रहाद को इसी वाक़ेऐ के बाद कोहकन कहा जाने लगा।

ग़ालिब ने ख़ुद को फ़रहाद की जगह रखा है। शाम से सुब्ह तक के वक़्त को पहाड़ माना है, अब इस शाम से अगली सुब्ह तक पहुँचना मानो फ़रहाद का पहाड़ तोड़ना ही है।

जोश मलीहाबादी कहते हैं कि इस में एक नुक्ता यह भी है कि फ़रहाद पहाड़ तोड़ने के बाद मर गया था, तो एक इशारा ये भी है कि शाम से सुब्ह करने में अब जान ही जाएगी।

सब समझ कर शे'र को फिर से पढ़िए और देखिए कि लुत्फ़ दो-बाला हुआ कि नहीं?

काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई पूछ

सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

प्रियंवदा इल्हान

मिर्ज़ा ग़ालिब

जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ

उस ने सदियों की जुदाई दी है

गुलज़ार

मिरी नाश के सिरहाने वो खड़े ये कह रहे हैं

इसे नींद यूँ आती अगर इंतिज़ार होता

सफ़ी लखनवी

है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम

मैं ये क्यूँ पूछूँ कब मिलेंगे आप

निज़ाम रामपुरी

इक रात वो गया था जहाँ बात रोक के

अब तक रुका हुआ हूँ वहीं रात रोक के

फ़रहत एहसास

मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा

ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा

साक़ी फ़ारुक़ी

शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में पूछ कैसे सहर हुई

कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया

मजरूह सुल्तानपुरी

अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे पास बैठ कर

तेरा ही इंतिज़ार किया है कभी कभी

नरेश कुमार शाद

वादा नहीं पयाम नहीं गुफ़्तुगू नहीं

हैरत है ख़ुदा मुझे क्यूँ इंतिज़ार है

लाला माधव राम जौहर

जिसे आने की क़स्में मैं दे के आया हूँ

उसी के क़दमों की आहट का इंतिज़ार भी है

जावेद नसीमी

ख़त्म हो जाएगा जिस दिन भी तुम्हारा इंतिज़ार

घर के दरवाज़े पे दस्तक चीख़ती रह जाएगी

ताहिर फ़राज़

जानता है कि वो आएँगे

फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

खुला है दर तिरा इंतिज़ार जाता रहा

ख़ुलूस तो है मगर ए'तिबार जाता रहा

जावेद अख़्तर

वो जल्द आएँगे या देर में ख़ुदा जाने

मैं गुल बिछाऊँ कि कलियाँ बिछाऊँ बिस्तर पर

आरिफ़ लखनवी

वो रहे हैं वो आते हैं रहे होंगे

शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बोलिए