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वफ़ा पर शेर

वफ़ा पर शायरी भी ज़्यादा-तर

बेवफ़ाई की ही सूरतों को मौज़ू बनाती है। वफ़ादार आशिक़ के अलावा और है कौन। और ये वफ़ादार किरदार हर तरफ़ से बे-वफ़ाई का निशाना बनता है। ये शायरी हमको वफ़ादारी की तर्ग़ीब भी देती है और बेवफ़ाई के दुख झेलने वालों के ज़ख़्मी एहसासात से वाक़िफ़ भी कराती है।

वो कहते हैं हर चोट पर मुस्कुराओ

वफ़ा याद रक्खो सितम भूल जाओ

कलीम आजिज़

दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं

दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं

हफ़ीज़ बनारसी

जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा

बार-हा आज़मा के देख लिया

दाग़ देहलवी

ये क्या कि तुम ने जफ़ा से भी हाथ खींच लिया

मिरी वफ़ाओं का कुछ तो सिला दिया होता

अब्दुल हमीद अदम

बस एक बार ही तोड़ा जहाँ ने अहद-ए-वफ़ा

किसी से हम ने फिर अहद-ए-वफ़ा किया ही नहीं

इब्राहीम अश्क

वफ़ा पर दग़ा सुल्ह में दुश्मनी है

भलाई का हरगिज़ ज़माना नहीं है

दत्तात्रिया कैफ़ी

तुम जफ़ा पर भी तो नहीं क़ाएम

हम वफ़ा उम्र भर करें क्यूँ-कर

बेदिल अज़ीमाबादी

जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई

सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मिरी वफ़ा है मिरे मुँह पे हाथ रक्खे हुए

तू सोचता है कि कुछ भी नहीं समझता मैं

अहमद कामरान

किसी तरह जो उस बुत ने ए'तिबार किया

मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया

दाग़ देहलवी

वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे

तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

दाग़ देहलवी

कम-सिनी में तो हसीं अहद-ए-वफ़ा करते हैं

भूल जाते हैं मगर सब जो शबाब आता है

अनुराज़

आगही कर्ब वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास

मेरे ही सीने में उतरे हैं ये ख़ंजर सारे

बशीर फ़ारूक़ी

दश्त-ए-वफ़ा में जल के रह जाएँ अपने दिल

वो धूप है कि रंग हैं काले पड़े हुए

होश तिर्मिज़ी

तू जफ़ाओं से जो बदनाम किए जाता है

याद आएगी तुझे मेरी वफ़ा मेरे बाद

फ़ज़ल हुसैन साबिर

ख़ूँ हुआ दिल कि पशीमान-ए-सदाक़त है वफ़ा

ख़ुश हुआ जी कि चलो आज तुम्हारे हुए लोग

अज़ीज़ हामिद मदनी

इश्क़ है बे-गुदाज़ क्यूँ हुस्न है बे-नियाज़ क्यूँ

मेरी वफ़ा कहाँ गई उन की जफ़ा को क्या हुआ

अब्दुल मजीद सालिक

वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए

वो हँस पड़े मुझे मुश्किल में डालने के लिए

एहसान दानिश

बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत

वफ़ा पर इश्क़ की बुनियाद रखना चाहते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

दुनिया के सितम याद अपनी ही वफ़ा याद

अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद

जिगर मुरादाबादी

वफ़ा के नाम पर पैरा किए कच्चे घड़े ले कर

डुबोया ज़िंदगी को दास्ताँ-दर-दास्ताँ हम ने

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

मुझ से क्या हो सका वफ़ा के सिवा

मुझ को मिलता भी क्या सज़ा के सिवा

हफ़ीज़ जालंधरी

जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो ज़ीस्त ने वफ़ा की

अभी के वो बैठे कि हम उठ गए जहाँ से

अब्दुल मजीद सालिक

वफ़ा के बाब में कार-ए-सुख़न तमाम हुआ

मिरी ज़मीन पे इक मअरका लहू का भी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मुझे मालूम है अहल-ए-वफ़ा पर क्या गुज़रती है

समझ कर सोच कर तुझ से मोहब्बत कर रहा हूँ मैं

अहमद मुश्ताक़

उन की जफ़ाओं पर भी वफ़ा का हुआ गुमाँ

अपनी वफ़ाओं को भी फ़रामोश कर दिया

हमीद जालंधरी

क्यूँ पशेमाँ हो अगर वअ'दा वफ़ा हो सका

कहीं वादे भी निभाने के लिए होते हैं

इबरत मछलीशहरी

तुझ से वफ़ा की तो किसी से वफ़ा की

किस तरह इंतिक़ाम लिया अपने आप से

हिमायत अली शाएर

वफ़ा का लाज़मी था ये नतीजा

सज़ा अपने किए की पा रहा हूँ

हफ़ीज़ जालंधरी

हम ने बे-इंतिहा वफ़ा कर के

बे-वफ़ाओं से इंतिक़ाम लिया

आले रज़ा रज़ा

अब तो कर डालिए वफ़ा उस को

वो जो वादा उधार रहता है

इब्न-ए-मुफ़्ती

जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने

वफ़ा के नाम से वो भी फ़रेब खा जाता

अज़ीज़ हामिद मदनी

क्या कहेगा कभी मिलने भी अगर आएगा वो

अब वफ़ादारी की क़स्में तो नहीं खाएगा वो

अजमल सिराज

उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत

उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा ना-गवार गुज़री है

सय्यद आबिद अली आबिद

उस बेवफ़ा से कर के वफ़ा मर-मिटा 'रज़ा'

इक क़िस्सा-ए-तवील का ये इख़्तिसार है

आले रज़ा रज़ा

एक औरत से वफ़ा करने का ये तोहफ़ा मिला

जाने कितनी औरतों की बद-दुआएँ साथ हैं

बशीर बद्र

अब दिलों में कोई गुंजाइश नहीं मिलती 'हयात'

बस किताबों में लिक्खा हर्फ़-ए-वफ़ा रह जाएगा

हयात लखनवी

कभी की थी जो अब वफ़ा कीजिएगा

मुझे पूछ कर आप क्या कीजिएगा

हसरत मोहानी

मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब

मुद्दत हुई है जिस से मुझे अब मिले हुए

अज़ीज़ हामिद मदनी

आप छेड़ें वफ़ा का क़िस्सा

बात में बात निकल आती है

दर्द असअदी

वादा वो कर रहे हैं ज़रा लुत्फ़ देखिए

वादा ये कह रहा है करना वफ़ा मुझे

जलील मानिकपूरी

इश्क़ पाबंद-ए-वफ़ा है कि पाबंद-ए-रुसूम

सर झुकाने को नहीं कहते हैं सज्दा करना

आसी उल्दनी

ढूँड उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती

ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

अहमद फ़राज़

क्या मस्लहत-शनास था वो आदमी 'क़तील'

मजबूरियों का जिस ने वफ़ा नाम रख दिया

क़तील शिफ़ाई

आज़मा लो कि दिल को चैन आए

ये कहना कहीं वफ़ा ही नहीं

बाक़र मेहदी

मेरे ब'अद वफ़ा का धोका और किसी से मत करना

गाली देगी दुनिया तुझ को सर मेरा झुक जाएगा

क़तील शिफ़ाई

तुम्हारे साथ मिरे मुख़्तलिफ़ मरासिम हैं

मिरी वफ़ा पे कभी इन्हिसार मत करना

आसिम वास्ती

उमीद उन से वफ़ा की तो ख़ैर क्या कीजे

जफ़ा भी करते नहीं वो कभी जफ़ा की तरह

आतिश बहावलपुरी

ये जफ़ाओं की सज़ा है कि तमाशाई है तू

ये वफ़ाओं की सज़ा है कि पए-दार हूँ मैं

हामिद मुख़्तार हामिद

इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ

वो वफ़ाएँ करने वाले बेवफ़ा क्यूँ हो गए

अख़्तर शीरानी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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